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हम गम देखते है

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  खुशियाँ सबको दिखती है हम गम देखते है, तुमको फिर भी लगता है हम कम देखते है।   ऊँचे कंगूरे गुम्बद शिखर सबको दिखते है,   हमारी नजर अलग है हम खम* देखते है। हमने जब दोस्ती की दिल देखा नीयत देखी, वो कोई और आदम होंगे जो दम* देखते है। हमको उन घुंघरूओं की गुलामी खलती है, देखने वाले यकीनन उनकी छम* देखते है।    जी चाहता है चूम लूं लिपट जाऊं जाकर, आँसू थमते ही नही मेरे जब अम* देखते है। ये जो लिखते है ना बडी़ अजीब कौम है 'शक्ति' दुनियाँ सुनती है जिसे कवि वो घम* देखते है।                                            ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति' खम - स्तंम्भ जो भार उठाये रहता है दम - शक्ति , सामर्थ्य छम - झंकार,आवाज अम - चाचा, बाप का भाई, पितृभ्राता घम - कोमल तल पर कडा़ आघात लगने से उत्पन्न नाद/आवाज  

जिसने दुनियां से भिड़ने की ठानी नही

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जिसने दुनियां से भिड़ने की ठानी नही। उसकी सच में होती कोई कहानी नही।  कब्रों में है कैद सिकंदर हिटलर सब,  जिसने दुनिया जीती लेकिन जानी नही।  लेकिन ये भी सच है दुनिया उनकी है,  लीक छोड़ कर चले भीड़ की मानी नही।   जिद़ जिनकी खूबी जीत बस उनकी है,   मर जाना मंजूर मात तो खानी नही।  राही खा ठोकर बेखोफ बढो आगे,  मौत तो वैसे भी दोबारा आनी नही। अपने गम अपनी खुशियाँ बस अपने है, ये दुनियां तो रोनी या मुस्कानी नही। दरिया क्या है पी जाऊं गर प्यास लगे, मुश्किल कब तक जब तक हमने ठानी नही। कहानी होती कुछ ऐसी जो मन को भाती है, शहंशाह होते है जिसमें होती कोई रानी नही।                                ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

बैठे बैठे तो

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       बैठे बैठे तो ये आज भी कल हो जायेगा,  बेकारी मस्अला है मगर हल हो जायेगा। अकेले ही सही मगर तुम निकलो तो सही,  देखना देखते ही देखते ये दल हो जायेगा।    नामुमकिन कुछ भी नही अगर जिद्द है, एक न एक दिन गगन भी थल हो जायेगा।   मुठ्ठियाँ कस के बाँध और इंतजार कर, जुनू से पत्थर पिघल कर जल हो जायेगा।                                   दशरथ रांंकावत 'शक्ति'

आसानी से

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          खून के दाग़ तो धुले बडी़ आसानी से,      शिकन के सल नही जाते मगर पेशानी से।    गुनाहों की एक आदत है होते हैं बडे़ चुपचाप, मगर अंजाम सजा़ ही है पढो़ जिस भी कहानी से। अजब रफ़्तार में दुनिया कहाँ से हम कहाँ पहुँचे,   लगाते जान की बाजी़ नही डरते हैं हानि से। पास बैठों के भी अब तो सुना है दिल नहीं मिलते, समंदर पार भी मिलती थी यहाँ सीता निशानी से। एक ये दौर है 'शक्ति' लिखा तक मुकर जाते हम, एक वो दौर था दुनियां जहाँ चलती थी ज़बानी से।                                 ✍🏻 दशरथ रांकावत 'शक्ति'

पहली बार

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  एक अधूरी किताब की कुछ पुरी रचनाएँ आप सभी की खिद़मत में... पहली बार ---1. चुनाव लड़ने   द़रकार  लगी है पहली बार लहरे भी द़मदार लगी है पहली बार कागज की कश्ती ना अब तक पार हुई नौका  कोई  पर  लगी   है  पहली  बार  झूठों  ने  सच्ची  सच्ची  तस्लीमें  दी गर्दन पर तलवार लगी है पहली बार ना  हिंसा ना हुडदंंग और चुनाव हुए चाकू पर ना धार लगी है पहली बार परिवर्तन  की गुंजाइश तो ना थी पर जनता ये हकदार लगी है पहली बार आस  बंधी   है  नया सवेरा  निकलेगा भली कोई सरकार लगी है पहली बार ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति' पहली बार---2.बीमार जिनसे थी उम्मीद उन्ही से खतरा है बाजू  कैसे  भार  लगी है पहली बार जे़बों  मेंं  सिगरेट  हाथ  में बोतल है नस्लें सब बीमार लगी है पहली बार   खुद  पर  जिनका जोर नही उनके हाथ क्या होगा जब कार लगी है पहली बार मद़होशी  आँखो  में  पसीना चेहरे पर मेहनत सब बेकार लगी है पहली बार सींचा जिनको अपना खून पसीना देकर  वो कलियां अब खा़र लगी है पहली बार छडी़  उठाओ  बाबा  मुहब्बत  रहने  दो जूती  अब  तो  सार लगी है पहली बार कच्चे   है  ये   घडे़  थाप  तो  वा़जिब  है अभी कहाँ कोई मार लगी है पहल

प्रेम और साहस

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 आज की इस भागती जिंदगी में प्यार मोहब्बत के लिए किसी के पास समय नही है। आज कल प्यार कपडे़ बदलने जैसा काम बन गया है जहां रोज किसी का दिल टूटता है और फिर और के साथ जुड़ जाता है। मगर ऐसा भी नही है की सच्चे प्यार करने वाले अब है ही नही है मगर अब वो समझ गये है कि दुनिया में उनकी कोई अहमियत नही है। मैनें उन सच्चे प्रेमियों की भावनाओं को अपने कवि मन से अक्षरों में बदलने का प्रयास किया है। साथ ही उन लोगों को हिम्मत देने का प्रयास किया है :-  तो लिजिए एक रचना साहसी प्रेमी के लिए:- बहुत बार सिंहासनों से उतारा गया हूँ मैं,  जलते  हुए जंगलों से गुजारा गया हूँ मैं। रास्तों  का  खौफ  तो  अब   रहा  ही  नही, बुलंदियों  के  दर  से भी पुकारा  गया हूँ मैं। जूझने की  जिद  ने  कभी  रुकने  नही दिया। सो  हार के हर एक मोड़ पर दोबारा गया हूँ मैं। तुमको  मेरी  जिद़  की   मैं  क्या  बताऊं  हद़, सहरा में अकेले  तैर  कर  किनारे  गया  हूँ मैं। जंग मे जो न हारा वो  इश्क में नही बचा, रफ्ता  रफ्ता  सलीके  से मारा गया हूँ मैं। प्यार में गया क्या क्या बताना है मुश्किल, दिल  दिमाग  आँखे  नही सारा गया हूँ मैं। इश्क   में 

बोला समंदर बादल से

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कभी कभी कवि वो देखता है जो सामान्य व्यक्ति की आँखो से  नहीं देखा जा सकता है।  आज कुछ ऐसी ही एक रचना आप सभी के लिए लाया हूँ :- बादल और समंदर की बातचीत    रोना है जी भरकर मुझको आँसू दे दो,  एक समंदर बादल से यूं बोल रहा था। जिसने  कभी  नही  सीमायें   मानी  थी,  उसका मन भी पसीज कर ढोल रहा था।    उसका   दर्द   तड़प   देखी    मैं    पूछ   पड़ा,  किस गम में तु ! उर कपाट को खोल रहा था। हीरे  मोती  रत्न जवाहरात सब तुझमें ही,  इन सबके बदले तू ! आँसू तोल रहा था।  ------------------------------------------------ आँसू पौछ के भारी मन से सागर बोला,  दुनियां के दुख देख के मैं भी ऊब गया।  इतना  मुश्किल  है  दुनिया  में  जीना क्या,  जो भी हिम्मत हारा आकर मुझमें डूब गया।  एक  विधवा दो बच्चों को लेकर,  एक  पति   सब  अपना खो कर। एक पगली प्रेम कपट से घायल, एक  रांझा  रात  विरह में रो कर।  एक  भाई  भाई  से  घायल,  एक बहन पीहर को खो कर।  एक बेटा सपनों  में  जकड़ा, एक बाप  बेटों  को  रो कर।  हाय विधाता मैं समझा था मैं ही सबसे खारा हूँ,  लेकिन आज दर्द में निकले एक आँसू से हारा हूँ।  ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति&#

मुफलिसी का मज़ाक

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एक रचना सामाजिक विसंगतियों और सियासी उपेक्षाओं से आहत नागरिकों के उच्च स्वाभिमान और हार न मानने की ज़िद को प्रदर्शित करती हुई। मेरी मुफलिसी का इतना मजाक ना उड़ाया कर, नहीं देना है तो ना दे मगर ख्वाब तो न दिखाया कर। जिंदा जलाना तुम्हारी फित़रत है हम मानते हैं मगर, दरिंदगी की हद होती है ख़ाक तो न उड़ाया कर। आंखों से अंधे कानों से बहरे जिस्म से अपाहिज़ रहो, सियासत में जरूरी ये है कि मुंह से चिल्लाया कर । वक्त का क्या मालूम कब कौन धोखा दे जाये यहां, दुश्मनों के साथ साथ दोस्तों को भी आजमाया कर। तुमने सभी का पेट काटा मगर तुम सर नहीं झुका पाये, ज़मीर ज़्यादा ख़तरनाक होता है सो गला दबाया कर। तमाम उम्र बस यही एक नसीहत बराबर मिली हमको, गमों पर रोना अकेले में मगर चेहरे से मुस्कुराया कर। तुम्हारे क्रोध लालच ने तुमको गली का कुत्ता बना छोड़ा, ज़रा सा गुरुर हमसे लें भौंका मत कर गुर्राया कर। ये ज़िंदगी बड़ी मेहनत से मिलती है किस्मत वालों को, ज़रा सी हार से डर कर इसको बेकार मत ज़ाया कर। तुझको तेरे राम ने यही एक हुक्म किया 'शक्ति'  कलम के दम से गुनाहगारों क

मत मायड़ ने भूल बावळा

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क्षेत्रफल की दृष्टि भारत का सबसे बड़ा राज्य कहीं तपता रेगिस्तान तो कहीं ऊंचे पठार जूझने की शक्ति जिसके अंदर सदा ही रही है। यहां की भुमि युद्धवीरों की पदचाप से पकी हुई है विश्व विजय की क्षमता वाले अद्भुत वीरो की धरती हर तरफ से भारत के गौरव का भाल होने के पश्चात भी आज तक अपनी भाषा को मान्यता नहीं दिला पाना बहुत दुखद लगता है। एक रचना जो राजस्थान को प्रदर्शित करती है सभी को निवेदित है:-  म्हारी आवाज़ में सुणबा खातर अठे दबावों 👇👇👇👇                                               👉👉  मत मायड़ ने भूल बावळा  👈👈

जहां सूरमा डर जाता है

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उम्मीद और जोश से भरी एक रचना आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूं क्योंकि आज जीवन में नकारात्मकता और हताशा ने मानव को अपनी शक्तियों से अनभिज्ञ बना दिया है। कविता निवेदित है :-   जहां सूरमा डर जाता है लहरों के उफान से, वहां मेरी पतवारें जूझें दरिया और तूफ़ान से। मैंने अपने पाँवों को बस इतनी बात सिखाई है, कट जाना मर जाना लेकिन डरना मत अंजाम से। अभी ठहरना उचित नहीं है अभी रास्ता लंबा है, कनक महल तक जाना हमको मिट्टी के मकान से। जब तक दूजी राह न हो तलवारों से दूर हैं हम, शस्त्र शास्त्र दोनों कर में हैं कह देना हैवान से। निश्चय कर दृढ़ धीरज रख मेहनत रंगत तो लाती है,  नामुमकिन लगने वाले सब काम हुए मुस्कान से। लक्ष्य हमेशा पुतली ही हो नहीं तनिक भी भ्रम पालो, शर कानों तक तान धनंजय वेध हुए संधान से। कइयों बार लिखा बदला है अपने तप ,बल,प्रेम से, स्वयं विधाता भी डरता है बस ज़िद्दी इंसान से। कम आँको खुद ना शक्ति दुर्लभ है कवि होना भी, ब्रह्मा दर्शन भी संभव है केवल अक्षर ज्ञान से। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

कौन करता है

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नमस्कार दोस्तों ! परीक्षण बेहद जरूरी है क्योंकि म्यान में रखी तलवारों को भी जंग लग जाता है और जरूरत पड़ने पर काम नहीं आती जीवन भी परीक्षण के बहुत से देता है कौन अपना है और कौन केवल अपनापन जता रहा है उनका परीक्षण करना बेहद जरूरी है। एक नयी रचना आप सभी के लिए निवेदित है :-   कौन बिछाता है कांटे सहारा कौन करता है, मंजिल पर ही देखेंगे किनारा कौन करता है। मुगल अंग्रेज थे तब तो सियासतदान है अब भी, एक ही भूल को बोलों दोबारा कौन करता है। फकीरी भी तुम्हें मालूम कसौटी खुब कसती है, किसे भाती नहीं दौलत किनारा कौन करता है। यही तो दर्द है प्यारे कि जिसका पार पाना है, इश्क़ की बुनियाद है कि ख़सारा कौन करता है। कोई तो जोर से बोलें ज़ुल्म अब हद से बाहर है, लगाये टकटकी सब है कि नारा कौन करता है। है मालूम वैसे तो हमारा हक़ तो जाना है, मगर मालूम तो हो ये इशारा कौन करता है। कोई एक रंग तेरे शेरों में आखिर क्यों नहीं 'शक्ति' अरे पागल हर एक हर्फ़ को अंगारा कौन करता है। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'