Posts

Followers

स्वागतम्

प्रेम और साहस

Image
 आज की इस भागती जिंदगी में प्यार मोहब्बत के लिए किसी के पास समय नही है। आज कल प्यार कपडे़ बदलने जैसा काम बन गया है जहां रोज किसी का दिल टूटता है और फिर और के साथ जुड़ जाता है। मगर ऐसा भी नही है की सच्चे प्यार करने वाले अब है ही नही है मगर अब वो समझ गये है कि दुनिया में उनकी कोई अहमियत नही है। मैनें उन सच्चे प्रेमियों की भावनाओं को अपने कवि मन से अक्षरों में बदलने का प्रयास किया है। साथ ही उन लोगों को हिम्मत देने का प्रयास किया है :-  तो लिजिए एक रचना साहसी प्रेमी के लिए:- बहुत बार सिंहासनों से उतारा गया हूँ मैं,  जलते  हुए जंगलों से गुजारा गया हूँ मैं। रास्तों  का  खौफ  तो  अब   रहा  ही  नही, बुलंदियों  के  दर  से भी पुकारा  गया हूँ मैं। जूझने की  जिद  ने  कभी  रुकने  नही दिया। सो  हार के हर एक मोड़ पर दोबारा गया हूँ मैं। तुमको  मेरी  जिद़  की   मैं  क्या  बताऊं  हद़, सहरा में अकेले  तैर  कर  किनारे  गया  हूँ मैं। जंग मे जो न हारा वो  इश्क में नही बचा, रफ्ता  रफ्ता  सलीके  से मारा गया हूँ मैं। प्यार में गया क्या क्या बताना है मुश्किल, दिल  दिमाग  आँखे  नही सारा गया हूँ मैं। इश्क   में 

बोला समंदर बादल से

Image
कभी कभी कवि वो देखता है जो सामान्य व्यक्ति की आँखो से  नहीं देखा जा सकता है।  आज कुछ ऐसी ही एक रचना आप सभी के लिए लाया हूँ :- बादल और समंदर की बातचीत    रोना है जी भरकर मुझको आँसू दे दो,  एक समंदर बादल से यूं बोल रहा था। जिसने  कभी  नही  सीमायें   मानी  थी,  उसका मन भी पसीज कर ढोल रहा था।    उसका   दर्द   तड़प   देखी    मैं    पूछ   पड़ा,  किस गम में तु ! उर कपाट को खोल रहा था। हीरे  मोती  रत्न जवाहरात सब तुझमें ही,  इन सबके बदले तू ! आँसू तोल रहा था।  ------------------------------------------------ आँसू पौछ के भारी मन से सागर बोला,  दुनियां के दुख देख के मैं भी ऊब गया।  इतना  मुश्किल  है  दुनिया  में  जीना क्या,  जो भी हिम्मत हारा आकर मुझमें डूब गया।  एक  विधवा दो बच्चों को लेकर,  एक  पति   सब  अपना खो कर। एक पगली प्रेम कपट से घायल, एक  रांझा  रात  विरह में रो कर।  एक  भाई  भाई  से  घायल,  एक बहन पीहर को खो कर।  एक बेटा सपनों  में  जकड़ा, एक बाप  बेटों  को  रो कर।  हाय विधाता मैं समझा था मैं ही सबसे खारा हूँ,  लेकिन आज दर्द में निकले एक आँसू से हारा हूँ।  ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति&#

मुफलिसी का मज़ाक

Image
एक रचना सामाजिक विसंगतियों और सियासी उपेक्षाओं से आहत नागरिकों के उच्च स्वाभिमान और हार न मानने की ज़िद को प्रदर्शित करती हुई। मेरी मुफलिसी का इतना मजाक ना उड़ाया कर, नहीं देना है तो ना दे मगर ख्वाब तो न दिखाया कर। जिंदा जलाना तुम्हारी फित़रत है हम मानते हैं मगर, दरिंदगी की हद होती है ख़ाक तो न उड़ाया कर। आंखों से अंधे कानों से बहरे जिस्म से अपाहिज़ रहो, सियासत में जरूरी ये है कि मुंह से चिल्लाया कर । वक्त का क्या मालूम कब कौन धोखा दे जाये यहां, दुश्मनों के साथ साथ दोस्तों को भी आजमाया कर। तुमने सभी का पेट काटा मगर तुम सर नहीं झुका पाये, ज़मीर ज़्यादा ख़तरनाक होता है सो गला दबाया कर। तमाम उम्र बस यही एक नसीहत बराबर मिली हमको, गमों पर रोना अकेले में मगर चेहरे से मुस्कुराया कर। तुम्हारे क्रोध लालच ने तुमको गली का कुत्ता बना छोड़ा, ज़रा सा गुरुर हमसे लें भौंका मत कर गुर्राया कर। ये ज़िंदगी बड़ी मेहनत से मिलती है किस्मत वालों को, ज़रा सी हार से डर कर इसको बेकार मत ज़ाया कर। तुझको तेरे राम ने यही एक हुक्म किया 'शक्ति'  कलम के दम से गुनाहगारों क

मत मायड़ ने भूल बावळा

Image
क्षेत्रफल की दृष्टि भारत का सबसे बड़ा राज्य कहीं तपता रेगिस्तान तो कहीं ऊंचे पठार जूझने की शक्ति जिसके अंदर सदा ही रही है। यहां की भुमि युद्धवीरों की पदचाप से पकी हुई है विश्व विजय की क्षमता वाले अद्भुत वीरो की धरती हर तरफ से भारत के गौरव का भाल होने के पश्चात भी आज तक अपनी भाषा को मान्यता नहीं दिला पाना बहुत दुखद लगता है। एक रचना जो राजस्थान को प्रदर्शित करती है सभी को निवेदित है:-  म्हारी आवाज़ में सुणबा खातर अठे दबावों 👇👇👇👇                                               👉👉  मत मायड़ ने भूल बावळा  👈👈

जहां सूरमा डर जाता है

Image
उम्मीद और जोश से भरी एक रचना आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूं क्योंकि आज जीवन में नकारात्मकता और हताशा ने मानव को अपनी शक्तियों से अनभिज्ञ बना दिया है। कविता निवेदित है :-   जहां सूरमा डर जाता है लहरों के उफान से, वहां मेरी पतवारें जूझें दरिया और तूफ़ान से। मैंने अपने पाँवों को बस इतनी बात सिखाई है, कट जाना मर जाना लेकिन डरना मत अंजाम से। अभी ठहरना उचित नहीं है अभी रास्ता लंबा है, कनक महल तक जाना हमको मिट्टी के मकान से। जब तक दूजी राह न हो तलवारों से दूर हैं हम, शस्त्र शास्त्र दोनों कर में हैं कह देना हैवान से। निश्चय कर दृढ़ धीरज रख मेहनत रंगत तो लाती है,  नामुमकिन लगने वाले सब काम हुए मुस्कान से। लक्ष्य हमेशा पुतली ही हो नहीं तनिक भी भ्रम पालो, शर कानों तक तान धनंजय वेध हुए संधान से। कइयों बार लिखा बदला है अपने तप ,बल,प्रेम से, स्वयं विधाता भी डरता है बस ज़िद्दी इंसान से। कम आँको खुद ना शक्ति दुर्लभ है कवि होना भी, ब्रह्मा दर्शन भी संभव है केवल अक्षर ज्ञान से। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

कौन करता है

Image
नमस्कार दोस्तों ! परीक्षण बेहद जरूरी है क्योंकि म्यान में रखी तलवारों को भी जंग लग जाता है और जरूरत पड़ने पर काम नहीं आती जीवन भी परीक्षण के बहुत से देता है कौन अपना है और कौन केवल अपनापन जता रहा है उनका परीक्षण करना बेहद जरूरी है। एक नयी रचना आप सभी के लिए निवेदित है :-   कौन बिछाता है कांटे सहारा कौन करता है, मंजिल पर ही देखेंगे किनारा कौन करता है। मुगल अंग्रेज थे तब तो सियासतदान है अब भी, एक ही भूल को बोलों दोबारा कौन करता है। फकीरी भी तुम्हें मालूम कसौटी खुब कसती है, किसे भाती नहीं दौलत किनारा कौन करता है। यही तो दर्द है प्यारे कि जिसका पार पाना है, इश्क़ की बुनियाद है कि ख़सारा कौन करता है। कोई तो जोर से बोलें ज़ुल्म अब हद से बाहर है, लगाये टकटकी सब है कि नारा कौन करता है। है मालूम वैसे तो हमारा हक़ तो जाना है, मगर मालूम तो हो ये इशारा कौन करता है। कोई एक रंग तेरे शेरों में आखिर क्यों नहीं 'शक्ति' अरे पागल हर एक हर्फ़ को अंगारा कौन करता है। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

एक रचना ऐसी भी

Image
कभी कभी अपनी बात कहने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत से उपाय करने पड़ते हैं  आज मैंने भी कुछ ऐसा ही नया प्रयोग किया है। शुरुआत तो आपको बहुत रोचक लगेगी हंसी मजाक  भरा संवाद लगेगा मगर आखिर आते आते आपको  संजीदा मुद्दे भी दिखेंगे। तो रचना प्रस्तुत है:- दोस्त की शादी कैसे भुलाई जा सकती है। पता है रोटीयां खींचडी से भी खाई जा सकती है। रसगुल्ले एक एक दाल बादाम भी थोड़ा थोड़ा, मगर इमरती एक साथ ढाई जा सकती है। इन मुर्खों को कौन समझाये दही बड़े भी है, चाय तो आखिर में भी लाई जा सकती है। तुम्हारी खोपड़ी ही तो है शिव का धनुष तो नहीं, थोड़ी मेहनत से खिसकाई जा सकती है। मुसीबत में काम ना आई दोस्ती मगर फिर भी, दो मुक्कों के बाद निभाई जा सकती है। चलों अब हंसा लिया तुमको मुद्दे पर चले आओ, सजग अब हो गये तो बात सुनाई जा सकती है। सिर्फ मायूसी ज़रूरी नहीं संजीदा शेरों के लिए, संजीदगी इरादों से भी जताई जा सकती है। चंद पैसों के लिए हर एक को मत बेचों तेजाब, इससे किसी की बेटी भी जलाई जा सकती है। नशें की लत में उलझे हो तुम्हें मालूम भी है ये, तुम्हारे बाप की इसमें सारी कम

मुझे क्या लेना देना

Image
समाज व्यक्तियों का समूह होता है जहां सभी अपनी सीमाओं में रहते हुए जीवन यापन करते हैं। परिस्थितियां खराब हो सकती है मगर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना कायरता है। देखिए ऐसी ही कायरता पर एक कविता   मंज़र है अनचाहे घर को खतरा घर से, सबके मुंह में खार मुझे क्या लेना देना। मैं हिंदू तु मुस्लिम हममें अंतर क्या, सबका है संसार मुझे क्या लेना देना। युवा सभी डूबे हैं इश्क़ मुहब्बत में, नस्ल हुई बीमार मुझे क्या लेना देना। लाश मिली है फिर बापू चौराहे पर, दोषी है सरकार मुझे क्या लेना देना। लूटों सारा देश हमारा हक़ है इस पर, चोर बने भरतार मुझे क्या लेना देना। जिम्मेदारी थोप रहे एक दूजे पर सब, सोचें सब मक्कार मुझे क्या लेना देना। टूट रहे परिवार लड़ रहे भाई भाई, ख़त्म हो गया प्यार मुझे क्या लेना देना। नहीं उम्र या पद का कोई मान बचा है, ज़ख्मी शिष्टाचार मुझे क्या लेना देना। काम आयेगा मेरे मेरा अपना खेत, तुम हो जागीरदार मुझे क्या लेना देना। सारा दरिया पार लगाया हाथों से, पड़ी रही पतवार मुझे क्या लेना देना। कलम उठाई एक लाखों दिल छेद दिये, धरी रही तलवार मुझे क्या लेना देना। दशा बड़ी दुखदाई कोन संभालें शक्त

शिव सप्तक

Image
                                   महाकाल भगवान नीलकंठ महादेव की महिमा अपरंपार है   भोले और सहज स्वभाव वाले मनुष्यों को सुलभ दीनबंधु परमपिता परमेश्वर को बारंबार प्रणाम 🙏  मां सरस्वती के आशीर्वाद से भगवान शिव की शब्द स्तुति करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है आप सभी इस रचना  आनंद लिजिए।                                       शिव सप्तक    मैं शिव तेरा आराध्य हूॅं, किंचित नहीं मैं बाध्य हूॅं। छलवान को दुर्लभ्य हूॅं, सरल को ही मैं साध्य हूॅं।   ज़मीं आकाश मुझ में है, गति प्रकाश मुझ में है। विकास हास मुझ में है, सृजन विनाश मुझ में है।   मैं बीज की प्रकृति में, मैं श्वास की आवृत्ति में। हूॅं स्वप्न में जागृति में, मैं हूॅं तपी की वृत्ति में।   मैं अग्नि वायु जल में हूॅं, नदी तडाग थल में हूॅं। युगों में और पल में हूॅं, मैं आज और कल में हूॅं।   है कंठ व्याल चंद्र भाल, गा रहा प्रलय का ताल। धधक रही है नेत्र ज्वाल, मैं ही शंभु मैं ही काल।     जटा में गंग धार है, मुझी से जग का सार है। वही तो भव से पार है, जो सत्य का सवार है।   मैं ही सुधा पियूष में हूॅं, मैं कालकूट विष में हूॅं। ना पूछ मैं किस किस में

संभलना खुद को है

Image
नमस्कार मित्रों बात यूं तो बहुत तार्किक है मगर सोचने पर रहस्यमय भी है  कई बार आपके निर्णय आपकी उन्नति या अवनति का मार्ग प्रशस्त करते हैं विनाश कैसे आता है यह रामायण, महाभारत और हर छोटे बड़े ग्रंथ में बहुत सुंदर ढंग से बताया गया है कि समझदारी सही और ग़लत के बीच चयन को नहीं कहते समझदारी कहते हैं सही और ज्यादा सही के बीच चयन को। जब समय का हथोड़ा चलता है परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती है मगर अनुकूलता और प्रतिकूलता दो चरण है ये तो नियति और जीवन के संतुलन के लिए आवश्यक है मगर उस समय आप कैसा प्रदर्शन करते हैं ये निर्धारित करता है कि आप कौन हैं अभावों में सकारात्मक रहने वाले बाजीगर या सब कुछ होते हुए भी किस्मत का रोना रोने वाले डरपोक। समय की कपटता पर एक कहानी याद आती है त्रेतायुग में जब रावण की सभी प्रमुख वीरों का विनाश हो गया तब उसने अपने भाई कुंभकर्ण को समय से पूर्व जगाया और सारी बातें अपने तरीके से बताई। कुंभकर्ण बहुत बलशाली होने के साथ ज्ञानी और धर्मज्ञ भी था उसने रावण को समझाया कि श्री राम नारायण के अवतार हैं उनसे बैर विनाश को निमंत्रण है मां सीता को सादर उन्हें लौटाकर अपने कुल के समूल वि

लौटना नहीं स्वीकार है

Image
महाभारत में एक ऐसा भी वीर था जिसके साथ नियति ने एक से बढ़कर एक छल किये यहां तक कि स्वयं भगवान भी अनेक यत्नों से उसे बलहीन और अपने पक्ष में लाने के प्रयास करते रहे मगर वो वीर हर परिस्थिति में वीरता का प्रमाण देता रहा। कर्ण अपने विजय धनुष के साथ     मेरा यह निजी विचार है कि कर्ण का कोई  निजी स्वार्थ इस युद्ध में दिखा नहीं मगर फिर मगर बुजुर्गो ने कहा है कि पापी भी संगत भी  पापी बना देती है। लिजिए एक रचना विचारों और भावनाओं के शब्द कलश से:-  कृष्ण कर्ण संवाद लौटना नहीं स्वीकार है रणभूमि में एक दिन अचानक कृष्ण बोले पार्थ से, जीतना उससे सरल है जो है लड़ता स्वार्थ से। किंतु ये राधेय बस लड़ता निभाने प्रीत को, मृत्यु भय इसको नहीं इसको जिताना मीत को। कुण्डल कवच हीन भी राधेय अविजित सर्व़दा, भीष्म और गुरु द्रोण से किंचित न कम ये आपदा। कुछ पल को ठहरों आ रहा हूॅं वीर को कुछ ज्ञान देकर, विजय अपनी होगी सुनिश्चित गर आ गया उसे साथ लेकर। कह के इतना कृष्ण पहुंचे कर्ण के रथ के निकट, देख कर साक्षात प्रभु को कर्ण लज्जित हुए विकट। है गिरिधर है भक्तवत्सल दीनबंधु दीनानाथ, मैं अकिंचन अर्पण करूं क्या शस्त्र केवल