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मुफलिसी का मज़ाक

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एक रचना सामाजिक विसंगतियों और सियासी उपेक्षाओं से आहत नागरिकों के उच्च स्वाभिमान और हार न मानने की ज़िद को प्रदर्शित करती हुई। मेरी मुफलिसी का इतना मजाक ना उड़ाया कर, नहीं देना है तो ना दे मगर ख्वाब तो न दिखाया कर। जिंदा जलाना तुम्हारी फित़रत है हम मानते हैं मगर, दरिंदगी की हद होती है ख़ाक तो न उड़ाया कर। आंखों से अंधे कानों से बहरे जिस्म से अपाहिज़ रहो, सियासत में जरूरी ये है कि मुंह से चिल्लाया कर । वक्त का क्या मालूम कब कौन धोखा दे जाये यहां, दुश्मनों के साथ साथ दोस्तों को भी आजमाया कर। तुमने सभी का पेट काटा मगर तुम सर नहीं झुका पाये, ज़मीर ज़्यादा ख़तरनाक होता है सो गला दबाया कर। तमाम उम्र बस यही एक नसीहत बराबर मिली हमको, गमों पर रोना अकेले में मगर चेहरे से मुस्कुराया कर। तुम्हारे क्रोध लालच ने तुमको गली का कुत्ता बना छोड़ा, ज़रा सा गुरुर हमसे लें भौंका मत कर गुर्राया कर। ये ज़िंदगी बड़ी मेहनत से मिलती है किस्मत वालों को, ज़रा सी हार से डर कर इसको बेकार मत ज़ाया कर। तुझको तेरे राम ने यही एक हुक्म किया 'शक्ति'  कलम के दम से गुनाहगारों क

मत मायड़ ने भूल बावळा

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क्षेत्रफल की दृष्टि भारत का सबसे बड़ा राज्य कहीं तपता रेगिस्तान तो कहीं ऊंचे पठार जूझने की शक्ति जिसके अंदर सदा ही रही है। यहां की भुमि युद्धवीरों की पदचाप से पकी हुई है विश्व विजय की क्षमता वाले अद्भुत वीरो की धरती हर तरफ से भारत के गौरव का भाल होने के पश्चात भी आज तक अपनी भाषा को मान्यता नहीं दिला पाना बहुत दुखद लगता है। एक रचना जो राजस्थान को प्रदर्शित करती है सभी को निवेदित है:-  म्हारी आवाज़ में सुणबा खातर अठे दबावों 👇👇👇👇                                               👉👉  मत मायड़ ने भूल बावळा  👈👈

जहां सूरमा डर जाता है

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उम्मीद और जोश से भरी एक रचना आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूं क्योंकि आज जीवन में नकारात्मकता और हताशा ने मानव को अपनी शक्तियों से अनभिज्ञ बना दिया है। कविता निवेदित है :-   जहां सूरमा डर जाता है लहरों के उफान से, वहां मेरी पतवारें जूझें दरिया और तूफ़ान से। मैंने अपने पाँवों को बस इतनी बात सिखाई है, कट जाना मर जाना लेकिन डरना मत अंजाम से। अभी ठहरना उचित नहीं है अभी रास्ता लंबा है, कनक महल तक जाना हमको मिट्टी के मकान से। जब तक दूजी राह न हो तलवारों से दूर हैं हम, शस्त्र शास्त्र दोनों कर में हैं कह देना हैवान से। निश्चय कर दृढ़ धीरज रख मेहनत रंगत तो लाती है,  नामुमकिन लगने वाले सब काम हुए मुस्कान से। लक्ष्य हमेशा पुतली ही हो नहीं तनिक भी भ्रम पालो, शर कानों तक तान धनंजय वेध हुए संधान से। कइयों बार लिखा बदला है अपने तप ,बल,प्रेम से, स्वयं विधाता भी डरता है बस ज़िद्दी इंसान से। कम आँको खुद ना शक्ति दुर्लभ है कवि होना भी, ब्रह्मा दर्शन भी संभव है केवल अक्षर ज्ञान से। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

कौन करता है

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नमस्कार दोस्तों ! परीक्षण बेहद जरूरी है क्योंकि म्यान में रखी तलवारों को भी जंग लग जाता है और जरूरत पड़ने पर काम नहीं आती जीवन भी परीक्षण के बहुत से देता है कौन अपना है और कौन केवल अपनापन जता रहा है उनका परीक्षण करना बेहद जरूरी है। एक नयी रचना आप सभी के लिए निवेदित है :-   कौन बिछाता है कांटे सहारा कौन करता है, मंजिल पर ही देखेंगे किनारा कौन करता है। मुगल अंग्रेज थे तब तो सियासतदान है अब भी, एक ही भूल को बोलों दोबारा कौन करता है। फकीरी भी तुम्हें मालूम कसौटी खुब कसती है, किसे भाती नहीं दौलत किनारा कौन करता है। यही तो दर्द है प्यारे कि जिसका पार पाना है, इश्क़ की बुनियाद है कि ख़सारा कौन करता है। कोई तो जोर से बोलें ज़ुल्म अब हद से बाहर है, लगाये टकटकी सब है कि नारा कौन करता है। है मालूम वैसे तो हमारा हक़ तो जाना है, मगर मालूम तो हो ये इशारा कौन करता है। कोई एक रंग तेरे शेरों में आखिर क्यों नहीं 'शक्ति' अरे पागल हर एक हर्फ़ को अंगारा कौन करता है। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'

एक रचना ऐसी भी

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कभी कभी अपनी बात कहने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत से उपाय करने पड़ते हैं  आज मैंने भी कुछ ऐसा ही नया प्रयोग किया है। शुरुआत तो आपको बहुत रोचक लगेगी हंसी मजाक  भरा संवाद लगेगा मगर आखिर आते आते आपको  संजीदा मुद्दे भी दिखेंगे। तो रचना प्रस्तुत है:- दोस्त की शादी कैसे भुलाई जा सकती है। पता है रोटीयां खींचडी से भी खाई जा सकती है। रसगुल्ले एक एक दाल बादाम भी थोड़ा थोड़ा, मगर इमरती एक साथ ढाई जा सकती है। इन मुर्खों को कौन समझाये दही बड़े भी है, चाय तो आखिर में भी लाई जा सकती है। तुम्हारी खोपड़ी ही तो है शिव का धनुष तो नहीं, थोड़ी मेहनत से खिसकाई जा सकती है। मुसीबत में काम ना आई दोस्ती मगर फिर भी, दो मुक्कों के बाद निभाई जा सकती है। चलों अब हंसा लिया तुमको मुद्दे पर चले आओ, सजग अब हो गये तो बात सुनाई जा सकती है। सिर्फ मायूसी ज़रूरी नहीं संजीदा शेरों के लिए, संजीदगी इरादों से भी जताई जा सकती है। चंद पैसों के लिए हर एक को मत बेचों तेजाब, इससे किसी की बेटी भी जलाई जा सकती है। नशें की लत में उलझे हो तुम्हें मालूम भी है ये, तुम्हारे बाप की इसमें सारी कम

मुझे क्या लेना देना

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समाज व्यक्तियों का समूह होता है जहां सभी अपनी सीमाओं में रहते हुए जीवन यापन करते हैं। परिस्थितियां खराब हो सकती है मगर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना कायरता है। देखिए ऐसी ही कायरता पर एक कविता   मंज़र है अनचाहे घर को खतरा घर से, सबके मुंह में खार मुझे क्या लेना देना। मैं हिंदू तु मुस्लिम हममें अंतर क्या, सबका है संसार मुझे क्या लेना देना। युवा सभी डूबे हैं इश्क़ मुहब्बत में, नस्ल हुई बीमार मुझे क्या लेना देना। लाश मिली है फिर बापू चौराहे पर, दोषी है सरकार मुझे क्या लेना देना। लूटों सारा देश हमारा हक़ है इस पर, चोर बने भरतार मुझे क्या लेना देना। जिम्मेदारी थोप रहे एक दूजे पर सब, सोचें सब मक्कार मुझे क्या लेना देना। टूट रहे परिवार लड़ रहे भाई भाई, ख़त्म हो गया प्यार मुझे क्या लेना देना। नहीं उम्र या पद का कोई मान बचा है, ज़ख्मी शिष्टाचार मुझे क्या लेना देना। काम आयेगा मेरे मेरा अपना खेत, तुम हो जागीरदार मुझे क्या लेना देना। सारा दरिया पार लगाया हाथों से, पड़ी रही पतवार मुझे क्या लेना देना। कलम उठाई एक लाखों दिल छेद दिये, धरी रही तलवार मुझे क्या लेना देना। दशा बड़ी दुखदाई कोन संभालें शक्त

शिव सप्तक

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  महाकाल भगवान नीलकंठ महादेव की महिमा अपरंपार है भोले और सहज स्वभाव वाले मनुष्यों को सुलभ दीनबंधु परमपिता परमेश्वर को बारंबार प्रणाम 🙏  मां सरस्वती के आशीर्वाद से भगवान शिव की शब्द स्तुति करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है आप सभी इस रचना  आनंद लिजिए।                                       शिव सप्तक    मैं शिव तेरा आराध्य हूॅं, किंचित नहीं मैं बाध्य हूॅं। छलवान को दुर्लभ्य हूॅं, सरल को ही मैं साध्य हूॅं।   ज़मीं आकाश मुझ में है, गति प्रकाश मुझ में है। विकास हास मुझ में है, सृजन विनाश मुझ में है।   मैं बीज की प्रकृति में, मैं श्वास की आवृत्ति में। हूॅं स्वप्न में जागृति में, मैं हूॅं तपी की वृत्ति में।   मैं अग्नि वायु जल में हूॅं, नदी तडाग थल में हूॅं। युगों में और पल में हूॅं, मैं आज और कल में हूॅं।   है कंठ व्याल चंद्र भाल, गा रहा प्रलय का ताल। धधक रही है नेत्र ज्वाल, मैं ही शंभु मैं ही काल।   जटा में गंग धार है, मुझी से जग का सार है। वही तो भव से पार है, जो सत्य का सवार है।   मैं ही सुधा पियूष में हूॅं, मैं कालकूट विष में हूॅं। ना पूछ मैं किस किस में हूॅं, त्रिलोक दसों दिश में हुॅं।   ✍

संभलना खुद को है

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नमस्कार मित्रों बात यूं तो बहुत तार्किक है मगर सोचने पर रहस्यमय भी है  कई बार आपके निर्णय आपकी उन्नति या अवनति का मार्ग प्रशस्त करते हैं विनाश कैसे आता है यह रामायण, महाभारत और हर छोटे बड़े ग्रंथ में बहुत सुंदर ढंग से बताया गया है कि समझदारी सही और ग़लत के बीच चयन को नहीं कहते समझदारी कहते हैं सही और ज्यादा सही के बीच चयन को। जब समय का हथोड़ा चलता है परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती है मगर अनुकूलता और प्रतिकूलता दो चरण है ये तो नियति और जीवन के संतुलन के लिए आवश्यक है मगर उस समय आप कैसा प्रदर्शन करते हैं ये निर्धारित करता है कि आप कौन हैं अभावों में सकारात्मक रहने वाले बाजीगर या सब कुछ होते हुए भी किस्मत का रोना रोने वाले डरपोक। समय की कपटता पर एक कहानी याद आती है त्रेतायुग में जब रावण की सभी प्रमुख वीरों का विनाश हो गया तब उसने अपने भाई कुंभकर्ण को समय से पूर्व जगाया और सारी बातें अपने तरीके से बताई। कुंभकर्ण बहुत बलशाली होने के साथ ज्ञानी और धर्मज्ञ भी था उसने रावण को समझाया कि श्री राम नारायण के अवतार हैं उनसे बैर विनाश को निमंत्रण है मां सीता को सादर उन्हें लौटाकर अपने कुल के समूल वि

लौटना नहीं स्वीकार है

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महाभारत में एक ऐसा भी वीर था जिसके साथ नियति ने एक से बढ़कर एक छल किये यहां तक कि स्वयं भगवान भी अनेक यत्नों से उसे बलहीन और अपने पक्ष में लाने के प्रयास करते रहे मगर वो वीर हर परिस्थिति में वीरता का प्रमाण देता रहा। कर्ण अपने विजय धनुष के साथ     मेरा यह निजी विचार है कि कर्ण का कोई  निजी स्वार्थ इस युद्ध में दिखा नहीं मगर फिर मगर बुजुर्गो ने कहा है कि पापी भी संगत भी  पापी बना देती है। लिजिए एक रचना विचारों और भावनाओं के शब्द कलश से:-  कृष्ण कर्ण संवाद लौटना नहीं स्वीकार है रणभूमि में एक दिन अचानक कृष्ण बोले पार्थ से, जीतना उससे सरल है जो है लड़ता स्वार्थ से। किंतु ये राधेय बस लड़ता निभाने प्रीत को, मृत्यु भय इसको नहीं इसको जिताना मीत को। कुण्डल कवच हीन भी राधेय अविजित सर्व़दा, भीष्म और गुरु द्रोण से किंचित न कम ये आपदा। कुछ पल को ठहरों आ रहा हूॅं वीर को कुछ ज्ञान देकर, विजय अपनी होगी सुनिश्चित गर आ गया उसे साथ लेकर। कह के इतना कृष्ण पहुंचे कर्ण के रथ के निकट, देख कर साक्षात प्रभु को कर्ण लज्जित हुए विकट। है गिरिधर है भक्तवत्सल दीनबंधु दीनानाथ, मैं अकिंचन अर्पण करूं क्या शस्त्र केवल

प्रतिकार

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एक चित्र देखा जिसमें  महाभारत के उन सभी किरदारों  का चित्रण था जो महाभारत का मूल कारण थे  अर्थात कौरव और पांडव मेरा व्यक्तिगत मत है कि व्यक्ति जो प्रतिकार का बल होते हुए भी अधर्म और पाप को सहन करता है वो कायर ही होता है। जब जब भी धरती पर पाप और अनाचार बढ़ा  है धर्म और अधर्म के बीच सामंजस्य बिगड़ा है  मानव ने कराह कर ईश्वर को पुकारा है।  एक दृष्टिकोण जो यह बताता है कि ईश्वर  हमेशा हमारे कष्टों को हरने नहीं आयेगा हमको स्वयं उठकर लड़ना होगा उसी दृष्टिकोण पर   आधारित एक रचना आप सबके सामने प्रस्तुत करता हूं:- प्रतिकार   जब थक हार गई अबला नर के नीच कर्म से, थे शीश अनेकों वीरों के पर झुकें थे सभी शर्म से। दांतों से भींच वसन अपना निज लाज बचाती कृष्णा है, मानव मूल्यों का महापतन नर की यह कैसी तृष्णा है। थी पतिव्रता वो पटरानी भी पर समय खींच कहां लाया, या यह कह दें कि सोये नर को आयी जगाने महामाया। वरना  चंडी क्या शांत रहेगी चीर खींचने देगी ? जब लहु दृष्टि में उतरे तो तत्काल भस्म कर देगी। पर उसने रखी लाज पुरूषों की नहीं मचाया तांडव, जोर जोर से पीड़ा गायी ताकि जाग जाये ये पांडव। नर की सारी कीर्ति लग

भाषा प्रयोग

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नमस्कार मित्रों ! शरीर के बहुत से अंगों से निकल रही पीड़ा को शब्दों में ढालने का मन बना लिया है आखिर लेखक होने का कुछ तो फायदा हो। एक भजन की कुछ पंक्तियां याद आ रही है कि  अगर ग़लती रूलाती है तो राहें भी दिखाती है, मनुज गलती का पुतला है जो अक्सर हो ही जाती है। लिखने वाले ने पता नहीं कैसे लिखा ज्ञान से या अनुभव से मगर लिखा सत्य है‌। गलतियां वैसे कई प्रकार की होती है मगर मैं उनको दो भागों में बांटता हूं १. शारिरिक क्रिया द्वारा २. गैर शारिरिक जीवन में मेरा जो अनुभव रहा वो अभी तक गैर शारिरिक रहा मगर परिणाम में प्रतिक्रिया शारिरिक रूप में मिली। और ईश्वर के अन्याय के तहत शारीरिक गलती जैसा भौतिक स्वरूप हमें दिया नहीं। खैर मुख्य जानकारी पर लौटते हैं जिसके लिए इतनी भुमिका बनाई गई।  जीवन के कुछ दुविधाजनक संस्मरण आप सभी से साझा करना चाहता हूं इनके प्रस्तुतिकरण से यदि आपको किसी भी प्रकार की सीख मिलें तो आशीर्वाद स्वरूप पुरवाई के समय होने वाले दर्द में कमी का आशीर्वाद प्रदान किजिएगा। १.-  एक बार शुद्ध हिन्दी भाषी बनने के चक्कर में हमने हमारे लंगोटिये यार को वैशाख नंदन क्या कहा हमारे प्राण लेने को