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आसानी से

 



        खून के दाग़ तो धुले बडी़ आसानी से,
     शिकन के सल नही जाते मगर पेशानी से।

   गुनाहों की एक आदत है होते हैं बडे़ चुपचाप, मगर अंजाम सजा़ ही है पढो़ जिस भी कहानी से। अजब रफ़्तार में दुनिया कहाँ से हम कहाँ पहुँचे,   लगाते जान की बाजी़ नही डरते हैं हानि से। पास बैठों के भी अब तो सुना है दिल नहीं मिलते, समंदर पार भी मिलती थी यहाँ सीता निशानी से। एक ये दौर है 'शक्ति' लिखा तक मुकर जाते हम, एक वो दौर था दुनियां जहाँ चलती थी ज़बानी से।                                 ✍🏻 दशरथ रांकावत 'शक्ति'



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