ये रचना कोई व्यंग्य नहीं है आज की वास्तविकता है मानव जिस गति से अनीति, अत्याचार और अपराध कर रहा है यह कहना गलत नहीं होगा की प्रलय काल निकट आ रहा है। जीवन मूल्यों में इतनी गिरावट कि मनुष्य की तृष्णा उसे भगवान तक को बेच खाने को मजबूर कर देगी दुखद है। अधिक कुछ कहना व्यर्थ भाषण लगेगा अतः सीधे एक रचना से जोड़ना सही रहेगा। राम नहीं @ नाम राज छोड़कर साकेत नगरी राम लौटे फिर धरा पर, फिर कोई रावण ही होगा लौट जाऊंगा हरा कर। पर अयोध्या सीमा में घुसते ही पुष्पक रोक दिया, पांच सौ देने पड़े एक गार्ड ने था टोक दिया। जब महल ढूंढा मिला जर्जर सा एक पाषाण खंड, आवेग जो अब तक दबा था हो गया आखिर प्रचंड। पूजते थे लोग मुझको एक ऐसा भी समय था, हर तरफ़ ख़ुशहाली थी व्यक्ति व्यक्ति धर्ममय था। किंतु लगता है निरर्थक मैंने इतना दर्द भोगा, स्वप्न में भी ये ना सोचा ऐसा भी कुछ देखना होगा। सहसा नूतन एक भवन बनते जो देखा राम ने, दुख भंवर का मिला किनारा सोचा था श्री राम ने। पूछा जब एक मजदूर से क्या ये भवन मेरे नाम होगा, 5000 दोगे तो निश्चित एक पत्थर तेरे भी नाम होगा। खूब आदर पा के राजा राम हनुमत को पुकारें, अब तो बजरंग ही
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बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए