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एक रचना ऐसी भी

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कभी कभी अपनी बात कहने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत से उपाय करने पड़ते हैं  आज मैंने भी कुछ ऐसा ही नया प्रयोग किया है। शुरुआत तो आपको बहुत रोचक लगेगी हंसी मजाक  भरा संवाद लगेगा मगर आखिर आते आते आपको  संजीदा मुद्दे भी दिखेंगे। तो रचना प्रस्तुत है:- दोस्त की शादी कैसे भुलाई जा सकती है। पता है रोटीयां खींचडी से भी खाई जा सकती है। रसगुल्ले एक एक दाल बादाम भी थोड़ा थोड़ा, मगर इमरती एक साथ ढाई जा सकती है। इन मुर्खों को कौन समझाये दही बड़े भी है, चाय तो आखिर में भी लाई जा सकती है। तुम्हारी खोपड़ी ही तो है शिव का धनुष तो नहीं, थोड़ी मेहनत से खिसकाई जा सकती है। मुसीबत में काम ना आई दोस्ती मगर फिर भी, दो मुक्कों के बाद निभाई जा सकती है। चलों अब हंसा लिया तुमको मुद्दे पर चले आओ, सजग अब हो गये तो बात सुनाई जा सकती है। सिर्फ मायूसी ज़रूरी नहीं संजीदा शेरों के लिए, संजीदगी इरादों से भी जताई जा सकती है। चंद पैसों के लिए हर एक को मत बेचों तेजाब, इससे किसी की बेटी भी जलाई जा सकती है। नशें की लत में उलझे हो तुम्हें मालूम भी है ये, तुम्हारे बाप की इसमें सारी कम

मुझे क्या लेना देना

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समाज व्यक्तियों का समूह होता है जहां सभी अपनी सीमाओं में रहते हुए जीवन यापन करते हैं। परिस्थितियां खराब हो सकती है मगर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना कायरता है। देखिए ऐसी ही कायरता पर एक कविता   मंज़र है अनचाहे घर को खतरा घर से, सबके मुंह में खार मुझे क्या लेना देना। मैं हिंदू तु मुस्लिम हममें अंतर क्या, सबका है संसार मुझे क्या लेना देना। युवा सभी डूबे हैं इश्क़ मुहब्बत में, नस्ल हुई बीमार मुझे क्या लेना देना। लाश मिली है फिर बापू चौराहे पर, दोषी है सरकार मुझे क्या लेना देना। लूटों सारा देश हमारा हक़ है इस पर, चोर बने भरतार मुझे क्या लेना देना। जिम्मेदारी थोप रहे एक दूजे पर सब, सोचें सब मक्कार मुझे क्या लेना देना। टूट रहे परिवार लड़ रहे भाई भाई, ख़त्म हो गया प्यार मुझे क्या लेना देना। नहीं उम्र या पद का कोई मान बचा है, ज़ख्मी शिष्टाचार मुझे क्या लेना देना। काम आयेगा मेरे मेरा अपना खेत, तुम हो जागीरदार मुझे क्या लेना देना। सारा दरिया पार लगाया हाथों से, पड़ी रही पतवार मुझे क्या लेना देना। कलम उठाई एक लाखों दिल छेद दिये, धरी रही तलवार मुझे क्या लेना देना। दशा बड़ी दुखदाई कोन संभालें शक्त

शिव सप्तक

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                                   महाकाल भगवान नीलकंठ महादेव की महिमा अपरंपार है   भोले और सहज स्वभाव वाले मनुष्यों को सुलभ दीनबंधु परमपिता परमेश्वर को बारंबार प्रणाम 🙏  मां सरस्वती के आशीर्वाद से भगवान शिव की शब्द स्तुति करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है आप सभी इस रचना  आनंद लिजिए।                                       शिव सप्तक    मैं शिव तेरा आराध्य हूॅं, किंचित नहीं मैं बाध्य हूॅं। छलवान को दुर्लभ्य हूॅं, सरल को ही मैं साध्य हूॅं।   ज़मीं आकाश मुझ में है, गति प्रकाश मुझ में है। विकास हास मुझ में है, सृजन विनाश मुझ में है।   मैं बीज की प्रकृति में, मैं श्वास की आवृत्ति में। हूॅं स्वप्न में जागृति में, मैं हूॅं तपी की वृत्ति में।   मैं अग्नि वायु जल में हूॅं, नदी तडाग थल में हूॅं। युगों में और पल में हूॅं, मैं आज और कल में हूॅं।   है कंठ व्याल चंद्र भाल, गा रहा प्रलय का ताल। धधक रही है नेत्र ज्वाल, मैं ही शंभु मैं ही काल।     जटा में गंग धार है, मुझी से जग का सार है। वही तो भव से पार है, जो सत्य का सवार है।   मैं ही सुधा पियूष में हूॅं, मैं कालकूट विष में हूॅं। ना पूछ मैं किस किस में

संभलना खुद को है

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नमस्कार मित्रों बात यूं तो बहुत तार्किक है मगर सोचने पर रहस्यमय भी है  कई बार आपके निर्णय आपकी उन्नति या अवनति का मार्ग प्रशस्त करते हैं विनाश कैसे आता है यह रामायण, महाभारत और हर छोटे बड़े ग्रंथ में बहुत सुंदर ढंग से बताया गया है कि समझदारी सही और ग़लत के बीच चयन को नहीं कहते समझदारी कहते हैं सही और ज्यादा सही के बीच चयन को। जब समय का हथोड़ा चलता है परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती है मगर अनुकूलता और प्रतिकूलता दो चरण है ये तो नियति और जीवन के संतुलन के लिए आवश्यक है मगर उस समय आप कैसा प्रदर्शन करते हैं ये निर्धारित करता है कि आप कौन हैं अभावों में सकारात्मक रहने वाले बाजीगर या सब कुछ होते हुए भी किस्मत का रोना रोने वाले डरपोक। समय की कपटता पर एक कहानी याद आती है त्रेतायुग में जब रावण की सभी प्रमुख वीरों का विनाश हो गया तब उसने अपने भाई कुंभकर्ण को समय से पूर्व जगाया और सारी बातें अपने तरीके से बताई। कुंभकर्ण बहुत बलशाली होने के साथ ज्ञानी और धर्मज्ञ भी था उसने रावण को समझाया कि श्री राम नारायण के अवतार हैं उनसे बैर विनाश को निमंत्रण है मां सीता को सादर उन्हें लौटाकर अपने कुल के समूल वि

लौटना नहीं स्वीकार है

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महाभारत में एक ऐसा भी वीर था जिसके साथ नियति ने एक से बढ़कर एक छल किये यहां तक कि स्वयं भगवान भी अनेक यत्नों से उसे बलहीन और अपने पक्ष में लाने के प्रयास करते रहे मगर वो वीर हर परिस्थिति में वीरता का प्रमाण देता रहा। कर्ण अपने विजय धनुष के साथ     मेरा यह निजी विचार है कि कर्ण का कोई  निजी स्वार्थ इस युद्ध में दिखा नहीं मगर फिर मगर बुजुर्गो ने कहा है कि पापी भी संगत भी  पापी बना देती है। लिजिए एक रचना विचारों और भावनाओं के शब्द कलश से:-  कृष्ण कर्ण संवाद लौटना नहीं स्वीकार है रणभूमि में एक दिन अचानक कृष्ण बोले पार्थ से, जीतना उससे सरल है जो है लड़ता स्वार्थ से। किंतु ये राधेय बस लड़ता निभाने प्रीत को, मृत्यु भय इसको नहीं इसको जिताना मीत को। कुण्डल कवच हीन भी राधेय अविजित सर्व़दा, भीष्म और गुरु द्रोण से किंचित न कम ये आपदा। कुछ पल को ठहरों आ रहा हूॅं वीर को कुछ ज्ञान देकर, होगी  विजय   अपनी  सुनिश्चित  आ गया  गर  साथ लेकर। कह के इतना कृष्ण पहुंचे कर्ण के रथ के निकट, देख कर साक्षात प्रभु को कर्ण लज्जित हुए विकट। है गिरिधर है भक्त वत्सल दीनबंधु दीनानाथ, मैं अकिंचन अर्पण करूं क्या शस्त्र

प्रतिकार

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एक चित्र देखा जिसमें  महाभारत के उन सभी किरदारों  का चित्रण था जो महाभारत का मूल कारण थे  अर्थात कौरव और पांडव मेरा व्यक्तिगत मत है कि व्यक्ति जो प्रतिकार का बल होते हुए भी अधर्म और पाप को सहन करता है वो कायर ही होता है। जब जब भी धरती पर पाप और अनाचार बढ़ा  है धर्म और अधर्म के बीच सामंजस्य बिगड़ा है  मानव ने कराह कर ईश्वर को पुकारा है।  एक दृष्टिकोण जो यह बताता है कि ईश्वर  हमेशा हमारे कष्टों को हरने नहीं आयेगा हमको स्वयं उठकर लड़ना होगा उसी दृष्टिकोण पर   आधारित एक रचना आप सबके सामने प्रस्तुत करता हूं:- प्रतिकार   जब थक हार गई अबला नर के नीच कर्म से, थे शीश अनेकों वीरों के पर झुकें थे सभी शर्म से। दांतों से भींच वसन अपना निज लाज बचाती कृष्णा है, मानव मूल्यों का महापतन नर की यह कैसी तृष्णा है। थी पतिव्रता वो पटरानी भी पर समय खींच कहां लाया, या यह कह दें कि सोये नर को आयी जगाने महामाया। वरना  चंडी क्या शांत रहेगी चीर खींचने देगी ? जब लहु दृष्टि में उतरे तो तत्काल भस्म कर देगी। पर उसने रखी लाज पुरूषों की नहीं मचाया तांडव, जोर जोर से पीड़ा गायी ताकि जाग जाये ये पांडव। नर की सारी कीर्ति लग

भाषा प्रयोग

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नमस्कार मित्रों ! शरीर के बहुत से अंगों से निकल रही पीड़ा को शब्दों में ढालने का मन बना लिया है आखिर लेखक होने का कुछ तो फायदा हो। एक भजन की कुछ पंक्तियां याद आ रही है कि  अगर ग़लती रूलाती है तो राहें भी दिखाती है, मनुज गलती का पुतला है जो अक्सर हो ही जाती है। लिखने वाले ने पता नहीं कैसे लिखा ज्ञान से या अनुभव से मगर लिखा सत्य है‌। गलतियां वैसे कई प्रकार की होती है मगर मैं उनको दो भागों में बांटता हूं १. शारिरिक क्रिया द्वारा २. गैर शारिरिक जीवन में मेरा जो अनुभव रहा वो अभी तक गैर शारिरिक रहा मगर परिणाम में प्रतिक्रिया शारिरिक रूप में मिली। और ईश्वर के अन्याय के तहत शारीरिक गलती जैसा भौतिक स्वरूप हमें दिया नहीं। खैर मुख्य जानकारी पर लौटते हैं जिसके लिए इतनी भुमिका बनाई गई।  जीवन के कुछ दुविधाजनक संस्मरण आप सभी से साझा करना चाहता हूं इनके प्रस्तुतिकरण से यदि आपको किसी भी प्रकार की सीख मिलें तो आशीर्वाद स्वरूप पुरवाई के समय होने वाले दर्द में कमी का आशीर्वाद प्रदान किजिएगा। १.-  एक बार शुद्ध हिन्दी भाषी बनने के चक्कर में हमने हमारे लंगोटिये यार को वैशाख नंदन क्या कहा हमारे प्राण लेने को

संवेदनाएं

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इस भागती दौड़ती हुई जिंदगी में इंसान इतना व्यस्त हो गया है कि उसकी संवेदनशीलता इस व्यस्तता के भोग चढ गई है। आज एक घटना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और ये प्रमाण दिया कि अभी मेरे अंदर बची भी है थोड़ी बहुत संवेदनशीलता।   दो वक्त की रोटी पाने की जद्दोजहद में आज जा रहा था सड़क पर मोटरसाइकिल से मैं बेपरवाह था क्योंकि सामने खुली सड़क थी कुछ पचास फुट पर एक गिलहरी सड़क पार कर रही थी मेरे पास पहुंचने तक लगभग दूसरे किनारे तक पहुंच गई थी मैं निश्चिंत था कि अब जा सकता हूं तकरीबन करीब पहुंचा तो अचानक आ गई मुड़ कर पीछे  मैं हड़बड़ाया रोकना चाहा मगर रूक न पाया  है ईश्वर! ये क्या कर दिया मैंने रूक गया मगर हिम्मत न हुई देखूं पीछे कि क्या वो जीवित है  क्यू वो पार पहुंच कर फिर से आई क्यू मैंने धीरे नहीं की दिन भर के कमाये पैसे चोरी लगे कैसे किसी के घर अंधेरा कर खा पाऊंगा आज सुख की मेहनत की रोटी हाय! वो तो थी जीव कहां दी थी उसको बुद्धि ईश्वर ने मगर मैं तो जानता था सब कुछ किसने रोका था मुझे करता तो है इंसान बुरा उनका जो करते हैं बुरा उसका मगर क्या बिगाड़ा था मेरा उस भोली निर्दोष गिलहरी ने मैं मुड़ न पा रहा थ

आदमी इतना ओछा नहीं था 😒

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  विगत कुछ समय से समाज की तस्वीर ऐसी बदली है जिसमें न केवल परिवार अपितु क्षेत्र और राष्ट्र तक को खंड खंड कर दिया है। भारत में नैतिकता का इतना भीषण पतन होगा ये संस्कृति के सृजनकर्ता जानते थे आध्यात्म कहता है कि जब पाप अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है तब प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार होती हैं। https://youtu.be/F1oTQywACjM इस कविता जो इसी प्रकार के पतन और प्रलय की चेतावनी का मिश्रण है प्रस्तुत है:- भाग्य की लेखनी जब लिखी थी गई, तब विधाता ने सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... लाख उपवास करके था पाया, मास नौ भार ढोया तुम्हारा । भाग्य से छीन सुख देता था वो, ऐसा कर्मठ पिता था तुम्हारा। भाग्य को तूने घर से निकाला, जन्मदाता थे बोझा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... चार दिन की ये काया निराली, आया खाली था जायेगा खाली। है धरा का धरा पर धरा ही रहेगा, सच सनातन क्यूं सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था..... खेत झुलसे थे सारे तपन में, चार छींटों की आशा थी मन में। भाग्य में अन्न अंकुर सृजन था, घोर घनघोर भेजें गगन में। धान धन पा के तुम व्यर्थ फूले, दीन दृग अश्रु पौछा नही था। आदमी इतना ओछा नहीं था......

परिवर्तन का बीज

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 दो दिन पहले करीबन रात के नौ बजे होंगे हमारे पड़ोस के चौधरी साहब जो एक बड़ी मेहंदी फेक्ट्री के मालिक है उनके घर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं । थोड़ा कान लगाने पर पता चला बाप बेटे में किसी बात का झगड़ा हो रहा था शायद पिता ने समय पर सो जाने और फोन को इतनी प्राथमिकता देने पर टोक दिया था। बात तो सही कही थी मगर बेटा चूंकि अब एक बड़ा कारोबारी था तो पिता की इस बात पर कुतर्क करने लगा बात इतनी बढ़ गई कि "आपने क्या किया मेरे लिए" तक बढ़ गई। खैर रात ज्यादा हो रही थी तो मैं भी सो गया। रात के करीबन 1 बजे मेरी नींद खुली अब तक बहस का अंत नहीं हुआ था शायद , अनायास ही मेरे कवि मन में विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा मैंने कागज कलम उठाये और चल पड़ा दृष्टांत को कागज पर उकेरने। मैं लिखने लगा कि :- जाहिल, गंवार, पुराने ख्याल वाले जाने क्या क्या, बाप को सब सुनना पड़ता हैं बेटों की जवानी में।                                     ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'                                      फिर इसी भाव के साथ सृजन होता गया:- बेटे क्या सच में तब बड़े हो जाते हैं, जब वो बाप के कपड़ो में आ जाते है।

आख़िर रावण जीत गया

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ज़ुल्म सहना भी ज़ुल्म करने जितना ही बड़ गुनाह है वर्तमान परिस्थितियों को पेश करती एक रचना। ।। युगों के मिश्रण के साथ समय का परिवर्तन।। ।। रावण जीत गया ।। हमारे शहर में अब की रावण नहीं जलेगा, मुखिया ने कहा है वो गुनहगार नहीं है। पांच हजार की आबादी में एक शख्स नहीं बोला, सच है ये कड़वा कोई चमत्कार नहीं है। क्या फ़र्क पड़ता है, अच्छा हुआ, पैसें बचे, जिंदा लाशों से बदलाव के कोई आसार नहीं हैं।  बेटे ने पूछा बाप से अबकी राम घर नहीं आयेंगे? क्या अयोध्या पर उनका अधिकार नहीं है? क्या चित्रकूट में भरत इंतजार में खड़े रहेंगे ? निषाद के फूल गंगा पार राह में पड़े रहेंगे ? क्या हनुमान सीना चीर के भगवान नहीं दिखाएंगे ? और क्या हम सब भी दीवाली नहीं मनायेंगे ? प्रश्नों की इन लहरों ने भीतर तक हिला दिया, अनजाने ही सही उसने मुझको खुद से मिला दिया। सच कहूं या झूठ बोलूं क्या समय की शर्त है, या कहूं कि बरसों पहले हुई अग्निपरीक्षा व्यर्थ है। आज दशरथ मौन है कैकेई की कुटिलाई पर, राम मर्यादा को भूले उतरे जग हंसाई पर। अब भरत करता नहीं क्षण भी प्रतिक्षा भाई की, अब लखन भी मांग करते सेवा की भरपाई की। हां विभिषण आज भ