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संवेदनाएं

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इस भागती दौड़ती हुई जिंदगी में इंसान इतना व्यस्त हो गया है कि उसकी संवेदनशीलता इस व्यस्तता के भोग चढ गई है। आज एक घटना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और ये प्रमाण दिया कि अभी मेरे अंदर बची भी है थोड़ी बहुत संवेदनशीलता।   दो वक्त की रोटी पाने की जद्दोजहद में आज जा रहा था सड़क पर मोटरसाइकिल से मैं बेपरवाह था क्योंकि सामने खुली सड़क थी कुछ पचास फुट पर एक गिलहरी सड़क पार कर रही थी मेरे पास पहुंचने तक लगभग दूसरे किनारे तक पहुंच गई थी मैं निश्चिंत था कि अब जा सकता हूं तकरीबन करीब पहुंचा तो अचानक आ गई मुड़ कर पीछे  मैं हड़बड़ाया रोकना चाहा मगर रूक न पाया  है ईश्वर! ये क्या कर दिया मैंने रूक गया मगर हिम्मत न हुई देखूं पीछे कि क्या वो जीवित है  क्यू वो पार पहुंच कर फिर से आई क्यू मैंने धीरे नहीं की दिन भर के कमाये पैसे चोरी लगे कैसे किसी के घर अंधेरा कर खा पाऊंगा आज सुख की मेहनत की रोटी हाय! वो तो थी जीव कहां दी थी उसको बुद्धि ईश्वर ने मगर मैं तो जानता था सब कुछ किसने रोका था मुझे करता तो है इंसान बुरा उनका जो करते हैं बुरा उसका मगर क्या बिगाड़ा था मेरा उस भोली निर्दोष गिलहरी ने मैं मुड़ न पा रहा थ

आदमी इतना ओछा नहीं था 😒

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  विगत कुछ समय से समाज की तस्वीर ऐसी बदली है जिसमें न केवल परिवार अपितु क्षेत्र और राष्ट्र तक को खंड खंड कर दिया है। भारत में नैतिकता का इतना भीषण पतन होगा ये संस्कृति के सृजनकर्ता जानते थे आध्यात्म कहता है कि जब पाप अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है तब प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार होती हैं। https://youtu.be/F1oTQywACjM इस कविता जो इसी प्रकार के पतन और प्रलय की चेतावनी का मिश्रण है प्रस्तुत है:- भाग्य की लेखनी जब लिखी थी गई, तब विधाता ने सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... लाख उपवास करके था पाया, मास नौ भार ढोया तुम्हारा । भाग्य से छीन सुख देता था वो, ऐसा कर्मठ पिता था तुम्हारा। भाग्य को तूने घर से निकाला, जन्मदाता थे बोझा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... चार दिन की ये काया निराली, आया खाली था जायेगा खाली। है धरा का धरा पर धरा ही रहेगा, सच सनातन क्यूं सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था..... खेत झुलसे थे सारे तपन में, चार छींटों की आशा थी मन में। भाग्य में अन्न अंकुर सृजन था, घोर घनघोर भेजें गगन में। धान धन पा के तुम व्यर्थ फूले, दीन दृग अश्रु पौछा नही था। आदमी इतना ओछा नहीं था......

परिवर्तन का बीज

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 दो दिन पहले करीबन रात के नौ बजे होंगे हमारे पड़ोस के चौधरी साहब जो एक बड़ी मेहंदी फेक्ट्री के मालिक है उनके घर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं । थोड़ा कान लगाने पर पता चला बाप बेटे में किसी बात का झगड़ा हो रहा था शायद पिता ने समय पर सो जाने और फोन को इतनी प्राथमिकता देने पर टोक दिया था। बात तो सही कही थी मगर बेटा चूंकि अब एक बड़ा कारोबारी था तो पिता की इस बात पर कुतर्क करने लगा बात इतनी बढ़ गई कि "आपने क्या किया मेरे लिए" तक बढ़ गई। खैर रात ज्यादा हो रही थी तो मैं भी सो गया। रात के करीबन 1 बजे मेरी नींद खुली अब तक बहस का अंत नहीं हुआ था शायद , अनायास ही मेरे कवि मन में विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा मैंने कागज कलम उठाये और चल पड़ा दृष्टांत को कागज पर उकेरने। मैं लिखने लगा कि :- जाहिल, गंवार, पुराने ख्याल वाले जाने क्या क्या, बाप को सब सुनना पड़ता हैं बेटों की जवानी में।                                     ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'                                      फिर इसी भाव के साथ सृजन होता गया:- बेटे क्या सच में तब बड़े हो जाते हैं, जब वो बाप के कपड़ो में आ जाते है।

आख़िर रावण जीत गया

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ज़ुल्म सहना भी ज़ुल्म करने जितना ही बड़ गुनाह है वर्तमान परिस्थितियों को पेश करती एक रचना। ।। युगों के मिश्रण के साथ समय का परिवर्तन।। ।। रावण जीत गया ।। हमारे शहर में अब की रावण नहीं जलेगा, मुखिया ने कहा है वो गुनहगार नहीं है। पांच हजार की आबादी में एक शख्स नहीं बोला, सच है ये कड़वा कोई चमत्कार नहीं है। क्या फ़र्क पड़ता है, अच्छा हुआ, पैसें बचे, जिंदा लाशों से बदलाव के कोई आसार नहीं हैं।  बेटे ने पूछा बाप से अबकी राम घर नहीं आयेंगे? क्या अयोध्या पर उनका अधिकार नहीं है? क्या चित्रकूट में भरत इंतजार में खड़े रहेंगे ? निषाद के फूल गंगा पार राह में पड़े रहेंगे ? क्या हनुमान सीना चीर के भगवान नहीं दिखाएंगे ? और क्या हम सब भी दीवाली नहीं मनायेंगे ? प्रश्नों की इन लहरों ने भीतर तक हिला दिया, अनजाने ही सही उसने मुझको खुद से मिला दिया। सच कहूं या झूठ बोलूं क्या समय की शर्त है, या कहूं कि बरसों पहले हुई अग्निपरीक्षा व्यर्थ है। आज दशरथ मौन है कैकेई की कुटिलाई पर, राम मर्यादा को भूले उतरे जग हंसाई पर। अब भरत करता नहीं क्षण भी प्रतिक्षा भाई की, अब लखन भी मांग करते सेवा की भरपाई की। हां विभिषण आज भ

मिलन मीत का बंधन प्रीत का

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"मित्रता" एक ऐसा भावात्मक बंधन जो प्रेम और भक्ति के भेद को पाट कर वहां समर्पण और त्याग का आदर्श दर्शाता है। प्रेम और मित्रता में सर्वस्व न्यौछावर करके भक्ति का चरम पद प्राप्त किया जा सकता है यह कृष्ण सुदामा की मित्रता प्रमाणित करती है।  प्रस्तुत है भाव विभोर कर देने वाली कृष्ण सुदामा की मैत्री पर आधारित रचना:- मीत मेरे घर आया सुदामा बड़े दिनों के बाद में,  क्या मुझसे कुछ हुई भूल जो आया ना तुझको याद में। एक गली में एक नदी पर साथ साथ में खेले है, कैसे दौड़े थे हम दिन भर सुनकर कहीं पर मेले हैं। बचपन के वो प्यारे दिन लौट ना आने बाद में..                             क्या मुझसे कुछ भूल ........ ना जाने तु क्यु है भूला प्यारी प्यारी याद को, आजा मेरे मीत सखा तू थाम ले मेरे हाथ को। इन पकवानो मैं कहाँ मजा होता था जो भात में                           क्या मुझसे कुछ भूल ........ मेरे सखा मेरे पास बैठ आ हाल सुना तू भाभी का,  बच्चे कैसे क्या है लाया तोहफा प्यार से भाभी का। देवर प्यारा हूं भाभी का भेजा प्रेम है साथ में                          क्या मुझसे कुछ भूल....... जो भी लाया देदे सुदाम

सात फेरे सात वचन

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विवाह दो शरीरों का मेल ही नहीं दो संस्कृतियों का भी मेल है जिसमें दो अलग-अलग परिस्थितियों में जीने वाले मिलकर एक नई जीवन रचना करते हैं। सात फेरे भारतीय संस्कृति में जब किसी का विवाह होता है तो सात फेरे लिए जाते हैं वैदिक पुराणों के अनुसार हर फेरा एक वचन का प्रमाण देता है । प्रस्तुत है आपके सामने एक रचना जिसमें सात फेरों का चित्रण किया गया है। सात फेरे सात वचन जब हमारा मिलन हो रहा था प्रिये, सात फेरों में मुझको चुना ही तो होगा। आज से दर्द खुशीयों में बराबर के साझी, तुमने पहला वचन ये सुना ही तो होगा।           जब हमारा मिलन हो रहा था प्रिये..... जो सजा सूत्र मंगल गले में तुम्हारे, मात्र मनके नहीं मेल मन का प्रिये। मान अपमान मेरा तुम्हारा भी होगा, तुमने दूजा वचन ये सुना ही तो होगा।             जब हमारा मिलन हो रहा था प्रिये..... दर्द दारूण दुखों से टूट जाऊं अगर, उस समय साथ मेरा न छोड़ोगी तुम। खुशीयां हो चाहे गम हो दोनों मिलकर सहेंगे, तुमने तीजा वचन ये सुना ही तो होगा।                                 जब हमारा मिलन हो रहा था प्रिये.....  भाई बहनें हो या मां पिताजी हमारे ,  फर्क मैं ना करूंग

नाम राज्य - एक कटु सत्य

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  ये रचना कोई व्यंग्य नहीं है आज की वास्तविकता है मानव जिस गति से अनीति, अत्याचार और अपराध कर रहा है यह कहना गलत नहीं होगा की प्रलय काल निकट आ रहा है। जीवन मूल्यों में इतनी गिरावट कि मनुष्य की तृष्णा उसे भगवान तक को बेच खाने को मजबूर कर देगी दुखद है। अधिक कुछ कहना व्यर्थ भाषण लगेगा अतः सीधे एक रचना से जोड़ना सही रहेगा। राम नहीं @ नाम राज छोड़कर साकेत नगरी राम लौटे फिर धरा पर, फिर कोई रावण ही होगा लौट जाऊंगा हरा कर। पर अयोध्या सीमा में घुसते ही पुष्पक रोक दिया, पांच सौ देने पड़े एक गार्ड ने था टोक दिया। जब महल ढूंढा मिला जर्जर सा एक पाषाण खंड, आवेग जो अब तक दबा था हो गया आखिर प्रचंड। पूजते थे लोग मुझको एक ऐसा भी समय था, हर तरफ़ ख़ुशहाली थी व्यक्ति व्यक्ति धर्ममय था। किंतु लगता है निरर्थक मैंने इतना दर्द भोगा, स्वप्न में भी ये ना सोचा ऐसा भी कुछ देखना होगा। सहसा नूतन एक भवन बनते जो देखा राम ने, दुख भंवर का मिला किनारा सोचा था श्री राम ने। पूछा जब एक मजदूर से क्या ये भवन मेरे नाम होगा, 5000 दोगे तो निश्चित एक पत्थर तेरे भी नाम होगा। खूब आदर पा के राजा राम हनुमत को पुकारें, अब तो बजरंग ही

MAA ( माँ )

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ईश्वर हर जग हर किसी की मदद नहीं कर सकता है लिए उसे अपना एक प्रतिरूप धरती पर मां के रूप में भेजा ! धरती पर शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसे कभी मां को महसूस नहीं किया हो खुद भगवान भी इसी एक शब्द को बोले के लिए धरती पर अवतार लेते हैं। सृजन माॅं का तन्हाइयों के वक्त एक दिन भगवान ने यूं मन बनाया , अद्भुत सृजन की ठान मन में प्रेम का दीपक सजाया। जज़्बात की मिट्टी को लेकर प्यार में बेहद मिलाया, पाषाण सीरत पुष्प सुरत पर देह को कोमल बनाया। अपनी सभी अच्छाईयों से भगवान ने उसको सजाया, मुस्कान और आंसू दया के साथ एक ढांचा बनाया। सहना सिखाया रोना सिखाया पर नहीं कहना सिखाया, मेहनत इतनी करके भगवान ने "माॅं" को बनाया। ✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति' भाषाई सुंदरता का समावेश करते हुए पेश है एक कविता           राजस्थान के मारवाड़ की क्षेत्रीय भाषा में लिखित मां पर कविता ..... एक प्रोढ व्यक्ति के उम्र के आखिरी पड़ाव में आ रही बचपन की यादों के भावावेग पर आधारित है.... *तु याद है मां मैं थने भुलू कीकर*  तु याद है माँ मैं थाने भुलू कीकर,   हुयो हूँ मोटो थारो ही दूध पीकर,    तु याद है माँ में थाने भुलू क

शायरी कैसे लिखें :- उर्दू शब्दकोश

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उर्दू और हिंदी में बड़े से बड़े शायर कवि, महाकवि हुए जिनकी शायरी और गजलें हजारों सालों से अमर है।  कभी ग़ालिब ने कहा था -       "गा़लिब बुरा ना मान जो वाइज़ बुरा कहे,       ऐसा भी है कोई कि सब अच्छा कहे जिसे।" ग़ालिब भी मानते थे कि तुम कुछ भी लिखोगे लोग गलत ही कहेंगे तो इस बात पर ध्यान देने से कोई मतलब नहीं कि लोग क्या कहेंगे मगर वर्तनी और सार्थकता का ध्यान रखना जरूरी है। शायर या सुख़नवर वह है जो अपने जज्बातों को ऐसे बयां करे है कि सुनने वाले को पसंद भी आये और अपनी बात भी पहुंच जाये।  लिखना बड़ी बात नहीं मगर सही शब्दों का प्रयोग जरूरी है साथ ही हिन्दी  की मात्राओं और मीटर क़ाफिया रदीफ का ज्ञान भी जरूरी है।  इसलिए अच्छी और सच्ची शायरी/ग़ज़ल लिखने के लिए एक शायर को इन बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है:- मिसरा/जुमला:-  शायरी की पंक्तियों को मिसरा भी कहते हैं। शेर:-  दो जुमलों या पंक्तियों से मिलकर बनी बात को शेर कहते हैं जिसका कोई भाव या अर्थ होता है। " हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम ,   वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।" मतला:-   किसी भी गजल के पहले शेर

तुमने कह तो दिया

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 यारो इश्क़ थोडा़ बहुत सब ने ही किया होगा वो चाहे किसी जानवर से हो या इंसान से मगर तकलीफ तो तब होती हैं जब वो आपका दिल तोड़ देता है।  वाकई कभी-कभी किसी की एक छोटी और ओछी बात दिल में ऐसा घाव करती है जो भरता नहीं है।  कुछ ऐसी ही कशमकश में लिखा एक दर्द भरा गीत पेश है आपकी ख़िदमत में - तुमने कह तो दिया भूल जाओ भूलना इतना आसान है क्या,  मरना बिन तेरे मुश्किल नहीं जीना बिन तेरे आसान है क्या। सूख जाता है जब कोई शज़र छूट जाता है पत्तों का घर,  टूटे पत्तों से जाकर के पूछो टूटना इतना आसान है क्या।                          मरना बिन तेरे मुश्किल नहीं........... जाने कितनी दफा हम तुम एक दूजे से छुप छुप मिले,  भूल जाते थे सिकवे सभी जब भी नैना से नैना मिले।  इतने पहरो में मिलना कोई जान बोलो ना आसान है क्या।                           मरना बिन तेरे मुश्किल नहीं.......... याद तुमको वो वादे भी है क्या तुम थे मैं था और कोई नहीं, जाने कितनी ही रातें बिताई मैं जगा तुम भी सोई नहीं। इश्क़ की ऐसी लहरें उठी तैरना इतना आसान है क्या।                          मरना बिन तेरे मुश्किल नहीं........ मैने माना था सब कुछ

टूटा दिल

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दुनियां में कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनका कोई इलाज  नहीं होता शरीर में किसी प्रकार की कोई चोट नहीं लगती लेकिन फिर भी इसके घाव इतने गहरे होते हैं कि किसी किसी की जान तक ले लेते है।  इश्क,प्यार,मोहब्बत एक ऐसा ही रोग है जिसमें इंसान खाना पिना भी भूल जाता है।   मगर जब प्यार,मुहब्बत और दोस्ती में धौखा मिलता है इंसान टूट जाता है कोई तो दूसरो का नुकसान करके खुद को तसल्ली देता है और कोई खुद को तबाह कर लेता है। हो कोई जख्म दिल के करीब इतना, तेरे जाने का दर्द हावी ना हो। उसके हर एक नखरे का मैं दीवाना हूं, कोई अदा नहीं बाकी जो दिखाई ना हो। उसकी आंखों की मिले कैद ताउम्र मुझको, मैं चाहूं भी मगर मुझे रिहाई ना हो। तमन्ना एक ही पूरी मेरे खुदा कर दे, रोग ए इश्क़ अता कर भले दवाई ना हो। मुझको ही देना सजा बेवफाई की मौला, भले उसने ही मुझसे निभाई ना हो।   दशरथ रांकावत "शक्ति"    प्यार ,मुहब्बत के जो उसूल पहले थे कि सात जन्म तक साथ के सपने बुने जाते थे वे अब नहीं रहे। ये भी सच है कि :- दिल की किताब लफ्जो की मोहताज नहीं, उसूल ये है जो दिल में है आँखों से बोल दो। आशिकी अब नहीं रही