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ठोकर जरूरी है

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कहीं सुना था लाखों करोड़ो जीवो में सिर्फ इंसान ही अकेला जीव है जिसे बुद्धि दी है मगर ये कोई अद्भुत बात नहीं मगर एक गुण ऐसा है जो उसे अद्भुत बनाता है और वो है उसका साहस,जीत का जुनून , जिद़, झूझने की हिम्मत! ऐ समंदर मान ले तु अकेला खारा नहीं, दर्द और तकलीफ से कौन है मारा नहीं। जिद़ रही है जान जब तक हार तो मानू नहीं,         जीत है या मौत मंजिल़ तीसरा चारा नहीं।                                        दशरथ रांकावत "शक्ति" जिद़ इंसान से वो करवा सकती है जो असंभव लगता हो पूरी दुनिया में ऐसे कई लोगो की कहानी आपने भी सुनी होगी मगर क्या है जो इनको असंभव को करने को मजबूर करता है। हाँ वही जिसे हम कहते है - ठोकर, धोखा, धक्का मगर ये इतना भी आसान नहीं  क्या क्या नहीं करना पडता है कभी मंजिल ने इंसान से पूछा था:- मंजिल ऐ विजेता पूछे मंजिल यूं ही क्या बस दौड़ आए, पथिक कहते राह मुश्किल तू बता क्या मोड़ आए।  पैर में छाले है कैसे आंख में पानी है क्यों, सच बता क्या क्या है खोया राह में क्या छोड़ आए। विजेता सुन ओ मंजिल जीत तो कुछ पल का बस आराम है, 

कोरोना -महामारी या कर्मो का फल

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      2020 शायद दुनियां का एक भी कोना ऐसा नहीं होगा जहां उस महामारी ने अपना प्रकोप नहीं फैलाया । सच ही कहा है :- ये जो हो रहा है ना सब अपने ही कर्मो का फल है, अभी बाकी है आगे आगे देखो होता है क्या,  मौत सुला देगी अच्छे अच्छो को ऐसा वक्त आयेगा, लोग पूछेंगे एक दूजे से तु चेन से सोता है क्या। ये भविष्य नहीं वर्तमान बता रहा हूँ तुमको,  ये वहम था कल तक कोई घर में कांटे बोता है क्या। एक रोटी तो क्या कोई पास खड़ा भी नहीं होने देगा, लोग भूल जायेंगे अपना होता है क्या।  मिठाई वहम है रोटीयां दिखेगी सपनो में, तुम कहोगे रोटी का भी सपना होता है क्या।  मगर पूछ मत लेना मुझसे बता नहीं पाउंगा, इंसान अपनी इंसानियत भी खोता है क्या।                                दशरथ रांकावत "शक्ति"  क्या प्रकृति अपने अंदर रहने वाले जीवो का विनाश कर सकती है क्या मां अपने बेटे का गला घोट सकती है क्या नदी अपना पानी खुद पी सकती है पेड़ अपना फल खुद खा सकता है नहीं हरगिज़ नहीं  तो इसका कारण क्या है सच पूछो तो इसका कारण केवल और केवल इंसान की खुद की लापरवाही खुदगर्जी है । मर्ज ए

भाग्यहीन

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 दुनिया कितनी अजीब है ना जिसे जो चाहिए उसे वह मिलता नहीं और जिसे कदर नहीं होती उसे भाग्य से सब मिल जाता है। उसूलों की लड़ाई में कमर तक टूट जाती हैं,  हो कितना भी आदत में लेकिन आदत छूट जाती हैं।  मैं उसको मनाता हूँ अपना खून बहाकर के,          मगर ये जिंदगी कुछ पल हसकर फिर रुठ जाती है।                                                                                                                                दशरथ रांकावत "शक्ति" सच है कोई मानो या ना मानो लेकिन कुछ तो है की एक छोटा बच्चा जो अभी पैदा भी नहीं हुआ उसकी भाग्य रेखाए बनी भी नहीं होगी फिर भी कोई है जो कहता है की तेरे चाहने वाले तुझे झाड़ियों में छोड़ जाएंगे और तुझे अपने बलबूते पर अपने भाग्य के भरोसे जीना है।  क्या बचपन होगा क्या जवानी क्या बुढापा होगा हर मोड़ पर उसे अकेलापन खायेगा अनजान रास्तो का कोई हमसफर नहीं होगा ना ही कोई हाथ मुश्किलो में उसे थामने आएगा। दर्द के उस पृष्ठभूमि का कुछ चित्रण क्या उसकी मनोव्यथा होगी प्रस्तुत है ऐसे ही अभागे का दर्द बयां करती कविता जिसका शीर्षक है :-              

मेहनत और मंजिल

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उम्मीद से बढकर अनमोल वस्तु इंसान के पास नहीं ये वो हथियार है जिससे इंसान असंभव को संभव कर सकता है मगर उसके साथ एक दूसरी ताकत बराबर काम करती है  वो है मेहनत !  आसानी से मिल जाये वो मंजिल कैसी मजा तो मेहनत का तब है जब पसीने की हर बूँद जीत की गवाही दे।  मंजिले जाति, धर्म, मजहब नहीं देखती वो देखती है पागलपन, जुनुन और हिम्मत !  वास्तव में दुख सुख की अहमियत बताता है वैसे ही मुश्किले मंजिल की लज्जत बढाती हैं। हारा हुआ इंसान घृणा के योग्य नहीं  वरन आदर के योग्य होता है क्योंकि उसके पास होता है अनुभव !  कहा भी गया है: -   मैं मंजिल पाने की जिद्द में नाकामी से ऊब गया, गिरती चिंटी ने समझाया कोशिश मंज़िल लाती हैं। रस्ते के काँटों से छिलकर पैरो ने ना बोल दिया,  गिरती धारा ने समझाया मुश्किल सबके आती हैं। पाँच कोस से पानी लाना भले जमाना भूल गया,  इतना भी आसान कहाँ था माँ हमको बतलाती है।  पाठ पढ़ो मेहनत का देखो दुनिया सीख सिखाती है,  कैसे चींटी खड़ी चढाई दाना ले चढ जाती हैं।  हलधर बंजर भूमि पर मेहनत का दाना बोता है,  पत्थर पर पत्थर रगड़ो तो चिनगारी तो आती है। 

चाल पुरानी सीख नई

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अगर और लेकिन जैसे शब्द कायर और आलसी लोगों के लिए है। रास्ते की तकलीफो से डरकर हो सकता है आप चलते रहे मगर मंजिल तो उन्हें पार करके ही मिलेगी, रो रो कर सहने से अच्छा है हसकर सहना।                                       सच ही कहा है :-                            मुश्किलें आदमी का हौसला बढाती है,                   टुटते ख्वाबो की परते हकीकत दिखाती हैं।                    हौसला ना हार तु ए मुसाफ़िर,                    ठोकरें आदमी को चलना सिखाती है।                          जुनूनी और जिद्दी आदमी के लिए मुश्किल रास्ते के पत्थर से बढकर कुछ नहीं।                            इंसान को गलतियों से सीख लेनी चाहिए चाहे वो खुद ने की हो या किसी और ने। प्रस्तुत है इतिहास और वर्तमान का मिश्रण :-     चाल पुरानी सीख नई  बन के कछुआ एक जैसी चाल अब ना फिर चलेगी, वो था सतयुग तब की दाले आज तक कैसे गलेगी। तब का खरहा आज तक क्या गलतियां दोहराएगा, जान कर भी आज फिर वह राह में सो जाएगा। गर अभी बैठे हो नियति भाग्य के फल के भरोसे, चाहते हो पत्थर उड़ाना स्वप्न के कल्पित परो से। मेरी मानो

दुर्योधन नही सुयोधन

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भगवान वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत आज भी विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है जिसे भारत और जयसंहिता भी कहते हैं। महाभारत का एक पात्र दुर्योधन अद्भुत क्षमता और प्रभावशाली व्यक्तित्व का धनी था परन्तु स्वार्थ, क्रोध और लोभ ने उसे खलनायक बना दिया।  महाभारत के अंतिम युद्ध जो भीम और दुर्योधन के बीच हुआ ।      प्रस्तुत है महाभारत लेकिन दुर्योधन के दृष्टिकोण से :-                 श्री कृष्ण दुर्योधन संवांद दुर्योधन नही सुयोधन मैं समय ठहर सा गया युद्ध जब भीम सुयोधन बीच हुआ,  उस रणभूमि का कण कण साक्षी क्या उसका परिणाम हुआ। अंत समय तक वीर लडा़ सौ बार गिरा फिर खड़ा हुआ, हो धर्म विजेता या पाप पराजित पर वीर सुयोधन अमर हुआ।  क्षण मृत्यु का निकट हुआ माधव को निकट बुलाकर बोला,  संतृप्त हृदय से पीड़ा निकली तत्काल संभलकर यु बोला।   हे गिरिधर एक बात सुनो मैं नीच नराधम दुर्योधन हूं, मैं पाप मूर्ति में कली रूप मैं अधर्म का संचित धन हूं। मैं विषघट हूं कुलनाशक मैं अनीति का वृहद वृक्ष हूँ। भातृशत्रु मैं कुटिल कामी मैं क्रोध लोभ का प्रबल पक्ष हूं। है कितने ही अवगुण अपार मैं महाभारत का

इंसानियत की हद

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करोना एक महामारी है मगर भारत वो देश है जहां पेड़ पौधे, जीव जन्तु, इंसान यहां तक की निर्जीव वस्तुओं से भी शिक्षा प्राप्त की जाती है। हमारे वेद पुराणो में तो 24 गुरूओ की कथा का भी वर्णन किया गया है मगर ये कितना लज्जाजनक विषय है कि सबकुछ जानने के बाद भी इंसान न जाने कितने अनुचित कार्य कर रहा है ये त्रासदी मानव को यही बताने आयी है कि भले ही कितना भी आधुनिक बन जाओ मगर जो अपनी हदो को पार करोगे तो नुकसान उठाना पड़ेगा।     इंसान क्या कर रहा है उसका एक सुंदर चित्रण कुछ यू है कि- है  वृक्ष क्यों नहीं खाते फल अपने, है नीर नदिया क्यों नहीं पीती स्वयं । है आकाश क्यों नहीं गिरता धरा पर, धरा क्यों नहीं फटती स्वयं । क्योंकि सीमा निश्चित है वृक्ष नदी आकाश की,  पर मानव क्यों तोड़े चले जाता हदे विश्वास की । क्या यह ईश्वर का कहा नहीं मानता है,  या फिर जीवन क्षणभंगुर है नहीं जानता है।  इसने धरती को जड़ों तक हिला डाला, उन अडिग से पर्वतों को मिट्टी में मिला डाला। जंगलों को जीव जंतुओ से रहित कर,  आशियानो को गिराकर आशियाना बना डाला। नीर नदियों का प्रदूषित हवा भी है धूल धूम

अर्जुन का घमण्ड

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भगवान की लीला भी गजब है पहले तो अर्जुन को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर बनाने के लिए सभी दुसरे योद्धाओ को रास्ते से हटाया एकलव्य का अँगूठा कर्ण के कवच कुण्डल भीष्म के लिए शिखण्डी़ द्रोण के लिए धृष्टधुम्न जैसे विरोधी विकल्प बनाये। महाभारत में एक ऐसा योद्घा और था जो उस समय धरती का सबसे महान योद्धा था नाम था बर्बरीक ! बर्बरीक महाबली भीमसेन के मायावी पुत्र घटोत्कच का पुत्र था । बर्बरीक ने भगवान शंकर की घोर तपस्या करके तीन अमोघ तीर प्राप्त किये थे जिनका तोड़ उस काल में किसी के भी पास नहीं था। वैसे ये होना चाहिए था कि भीम का पोत्र है तो पाण्डवो की तरफ से ही युद्ध करेगा मगर उसका एक प्रण था कि निर्बल की सहायता करेगा बस इसी प्रण के कारण श्री कृष्ण ने उसे भी रास्ते से हटाया क्योंकि यदि वो युद्ध में भाग लेता तो युद्ध कभी समाप्त नहीं होता जिस तरफ भी हार दिखती वो उधर चला जाता। वास्तव में महाभारत के युद्ध में अर्जुन को घमण्ड हो गया कि मैने अकेले पुरी कौरव सैना का संहार किया मै ही सर्वश्रेष्ठ हूँ। भगवान तो अंन्तर्यामी है इस कारण भगवान ने उसका उपाय युद्ध पुर्व कर दिया था कथा कुछ ऐसे है  श्री

मैं हूँ धरतीपुत्र

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स्वाभिमान, खुद्दारी, आत्मसम्मान ये शब्द जितने भारी लिखने और दिखने में है उस से कही ज्यादा भार इनको धारण करना में है। आज जैसा समय है व्यक्ति अपनी जडो़ से जुड़ा नहीं रह पा रहा है कारण क्या है इस पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है मगर ये मानने में किसी को कोई संकोच नहीं होगा की भारत अगर कही बचा है तो वो केवल गाँवो में। उसी गांव का कोई किसान अपनी  जीवन यात्रा का  वर्णन अपने बेटे से आखिरी वक्त कहता है । जीवन की कहानी लिखना बड़ा मुश्किल काम है आदमी क्या खोया क्या पाया का चिठ्ठा खोलता है कैसै उम्र के हर पडाव को पार करके यहां तक पहुंचा पैसे कमाने के बहुत रास्ते थे मगर खेती, खेत, मिट्टी, गाँव में ऐसा क्या था जिसने उसे बांधे रखा।  विषय तर्क का हो सकता है मगर सच्चाई फिर भी यही रहेगी।     मैं  हूँ धरतीपुत्र आत्मा मेरी मेरे तन से न निकले कही तडपकर, और शर्म से सर मेरा झुक जायेगा मेरे मरण पर। वो शहर क्या दे सकेगा जो यहां पर शान है, मैं  हूँ धरतीपुत्र सच्चा नाम मेरा किसान है।  मैं  हूँ धरतीपुत्र सच्चा............ मैं यहां पैदा हुआ बचपन की उजली याद है, दुध घी और राब मख्खन का अलग ही स्वाद हैं