आदमी इतना ओछा नहीं था 😒
विगत कुछ समय से समाज की तस्वीर ऐसी बदली है जिसमें न केवल परिवार अपितु क्षेत्र और राष्ट्र तक को खंड खंड कर दिया है। भारत में नैतिकता का इतना भीषण पतन होगा ये संस्कृति के सृजनकर्ता जानते थे आध्यात्म कहता है कि जब पाप अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है तब प्रलय की पृष्ठभूमि तैयार होती हैं। https://youtu.be/F1oTQywACjM इस कविता जो इसी प्रकार के पतन और प्रलय की चेतावनी का मिश्रण है प्रस्तुत है:- भाग्य की लेखनी जब लिखी थी गई, तब विधाता ने सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... लाख उपवास करके था पाया, मास नौ भार ढोया तुम्हारा । भाग्य से छीन सुख देता था वो, ऐसा कर्मठ पिता था तुम्हारा। भाग्य को तूने घर से निकाला, जन्मदाता थे बोझा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था...... चार दिन की ये काया निराली, आया खाली था जायेगा खाली। है धरा का धरा पर धरा ही रहेगा, सच सनातन क्यूं सोचा नहीं था। आदमी इतना ओछा नहीं था..... खेत झुलसे थे सारे तपन में, चार छींटों की आशा थी मन में। भाग्य में अन्न अंकुर सृजन था, घोर घनघोर भेजें गगन में। धान धन पा के तुम व्यर्थ फूले, दीन दृग अश्रु पौछा नही था। आदमी इतना ओछा नहीं था.....