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इंसानियत की हद


करोना एक महामारी है मगर भारत वो देश है जहां पेड़ पौधे, जीव जन्तु, इंसान यहां तक की निर्जीव वस्तुओं से भी शिक्षा प्राप्त की जाती है।
हमारे वेद पुराणो में तो 24 गुरूओ की कथा का भी वर्णन किया गया है मगर ये कितना लज्जाजनक विषय है कि सबकुछ जानने के बाद भी इंसान न जाने कितने अनुचित कार्य कर रहा है ये त्रासदी मानव को यही बताने आयी है कि भले ही कितना भी आधुनिक बन जाओ मगर जो अपनी हदो को पार करोगे तो नुकसान उठाना पड़ेगा।




    इंसान क्या कर रहा है उसका एक सुंदर चित्रण कुछ यू है कि-



है  वृक्ष क्यों नहीं खाते फल अपने,
है नीर नदिया क्यों नहीं पीती स्वयं ।
है आकाश क्यों नहीं गिरता धरा पर,
धरा क्यों नहीं फटती स्वयं ।
क्योंकि सीमा निश्चित है वृक्ष नदी आकाश की, 
पर मानव क्यों तोड़े चले जाता हदे विश्वास की ।
क्या यह ईश्वर का कहा नहीं मानता है, 
या फिर जीवन क्षणभंगुर है नहीं जानता है।
 इसने धरती को जड़ों तक हिला डाला,
उन अडिग से पर्वतों को मिट्टी में मिला डाला।
जंगलों को जीव जंतुओ से रहित कर, 
आशियानो को गिराकर आशियाना बना डाला।
नीर नदियों का प्रदूषित हवा भी है धूल धूमित
 चीर कर खेतों का सीना बीच रस्ता बना डाला।
अधिकार है पशुपक्षियों को पेड़ पर्वत निर्झर को,
 संतति के लिए खुद से नया संसार देंना।
अधिकार सबका हे समान धरती और आकाश पे, 
मानव लगा क्यों अधिकार सभी का छीन लेगा। 
 यूं तो प्रलय की नींव  खुद मानव ही रखेगा,
बोए हुए विष वृक्ष का फल भी चखेगा। 
भेंट में पाया ये जीवन आतिथ्य का अपमान करेगा, 
पुण्य संचय हित मिला था पाप से ही घट भरेगा।
नारायण के सृष्टिचक्र में नर का विघ्न क्या मान लेंगे,
 अंत तक पहुंचे मनुज को धक्का स्वयं भगवान देंगे।
                                                 दशरथ रांकावत "शक्ति"


जीवन चक्र चलाने के लिए विधाता ने अपने अधिकारो का दुरुपयोग नहीं किया तो हमें यदि ये समझने में सैकड़ों साल लगेंगे तो ये वैज्ञानिकता ये आधुनिकता बेकार हैं। 
यदि मोक्ष की राह इतनी सरल कर दी होती तो ईश्वर को युग निर्माण की आवश्यकता होती ही नहीं मगर जैसे नये पत्तो और नये पौधै के निर्माण के लिए ग्रीष्म और पतझड़ जरूरी है उसी तरह नयी पीढ़ी के आगमन के लिए पुरानी पीढी का नाश आवश्यक है। 
भविष्य वर्तमान की कोख से ही निकलेगा मगर यदि भुतकाल भविष्य के लिए कोई संसाधन नहीं छोडेगा तो मानवता अधिक समय तक नहीं टिकेगी ।

ये सत्य है इसे स्वीकार करो-

लौट चले क्यू शुन्य खोजने क्या अनंत बेस्वाद मिला, 
ये विकास किस मोल मिला जब व्यक्ति हर एक अशांत मिला। 
हाँ ये सच है सब खो कर बुद्ध ने पाया था सब कुछ, 
सब पाकर भी वो सिकंदर क्यूँ इतना बरबाद मिला। 
जिस हेतू को पाने जग मे उस सृष्टा ने भेजा था, 
भूल गये है जीवन जीना तकनीकी संसार चुना। 
क्या ये तकनीकी कर्म फलो को काट सकेगी, 
यान हमें क्या स्वर्गलोक पहुंचा सकेंगे।
क्या धरती माँ क्षमा करेगी लालच की करतूतो को, 
क्या पापो को पुण्य कर्म मैं बदल सकेंगे। 
सच है इन प्रश्नों का उत्तर ना तुम ना मैं दे सकते हैं, 
पर ईश्वर ने बुद्धि दी है राह सही तो पा सकते हैं। 
                                                 दशरथ रांकावत "शक्ति" 

  

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