मुफलिसी का मज़ाक
एक रचना सामाजिक विसंगतियों और सियासी उपेक्षाओं से आहत नागरिकों के उच्च स्वाभिमान और हार न मानने की ज़िद को प्रदर्शित करती हुई।
मेरी मुफलिसी का इतना मजाक ना उड़ाया कर,
नहीं देना है तो ना दे मगर ख्वाब तो न दिखाया कर।
जिंदा जलाना तुम्हारी फित़रत है हम मानते हैं मगर,
दरिंदगी की हद होती है ख़ाक तो न उड़ाया कर।
आंखों से अंधे कानों से बहरे जिस्म से अपाहिज़ रहो,
सियासत में जरूरी ये है कि मुंह से चिल्लाया कर।
वक्त का क्या मालूम कब कौन धोखा दे जाये यहां,
दुश्मनों के साथ साथ दोस्तों को भी आजमाया कर।
तुमने सभी का पेट काटा मगर तुम सर नहीं झुका पाये,
ज़मीर ज़्यादा ख़तरनाक होता है सो गला दबाया कर।
तमाम उम्र बस यही एक नसीहत बराबर मिली हमको,
गमों पर रोना अकेले में मगर चेहरे से मुस्कुराया कर।
तुम्हारे क्रोध लालच ने तुमको गली का कुत्ता बना छोड़ा,
ज़रा सा गुरुर हमसे लें भौंका मत कर गुर्राया कर।
ये ज़िंदगी बड़ी मेहनत से मिलती है किस्मत वालों को,
ज़रा सी हार से डर कर इसको बेकार मत ज़ाया कर।
तुझको तेरे राम ने यही एक हुक्म किया 'शक्ति'
कलम के दम से गुनाहगारों को आइना दिखाया कर।
✍️ दशरथ रांकावत 'शक्ति'
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बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए