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मिलन मीत का बंधन प्रीत का

"मित्रता" एक ऐसा भावात्मक बंधन जो प्रेम और भक्ति के भेद को पाट कर वहां समर्पण और त्याग का आदर्श दर्शाता है।
प्रेम और मित्रता में सर्वस्व न्यौछावर करके भक्ति का चरम पद प्राप्त किया जा सकता है यह कृष्ण सुदामा की मित्रता प्रमाणित करती है। 
प्रस्तुत है भाव विभोर कर देने वाली कृष्ण सुदामा की मैत्री पर आधारित रचना:-





मीत मेरे घर आया सुदामा बड़े दिनों के बाद में, 
क्या मुझसे कुछ हुई भूल जो आया ना तुझको याद में।
एक गली में एक नदी पर साथ साथ में खेले है,
कैसे दौड़े थे हम दिन भर सुनकर कहीं पर मेले हैं।
बचपन के वो प्यारे दिन लौट ना आने बाद में..
                            क्या मुझसे कुछ भूल ........
ना जाने तु क्यु है भूला प्यारी प्यारी याद को,
आजा मेरे मीत सखा तू थाम ले मेरे हाथ को।
इन पकवानो मैं कहाँ मजा होता था जो भात में 
                         क्या मुझसे कुछ भूल ........
मेरे सखा मेरे पास बैठ आ हाल सुना तू भाभी का,
 बच्चे कैसे क्या है लाया तोहफा प्यार से भाभी का।
देवर प्यारा हूं भाभी का भेजा प्रेम है साथ में 
                        क्या मुझसे कुछ भूल.......
जो भी लाया देदे सुदामा मुझसे रहा न जाता है,
मत कर मुझसे ऐसी ठिठोली मुझसे सहा न जाता है।
क्यों शरमा कर उसे छुपाता छुपता नहीं जो हाथ में,
                           क्या मुझसे कुछ भूल.......
तेरी मुझसे प्रीत बड़ी रे सारी दुनिया से लड़ी है,
 माया के भवसागर में देखो कैसे अडिग खड़ी है।
 तूने अपना सब कुछ वारा ऐसी भक्ति नाम में 
                          क्या मुझसे कुछ भूल......
बहुत देर से आए सुदामा क्या विपदा अब आन पड़ी है,
यह सुनकर तब बोले सुदामा यहीं पर तेरी मेरी ठनी है।
खाने के लाले है लेकिन गरज से ना करता याद में 
                            क्या मुझसे कुछ भूल ........
तू समझे मैं बड़ा अकिंचन रोटी का मोहताज हुआ,
मेरे इस निर्जन मन में बस तेरे प्रेम का राज हुआ।
मेरी दशा तु जाने गिरधर मैं था तेरे ध्यान में,
                            क्या मुझसे कुछ भूल.......
किसी वस्तु की कमी नहीं ना कोई गरज पड़ी है,
इन नैनो को गिरधर बस तेरे दरस की आस पड़ी है।
निर्बल मैं था तुम तो सबल थे क्या आया कभी याद मैं,
                               क्या मुझसे कुछ भूल.......
 अरे धन की कमी रहे चाहे पर श्याम से प्रीत गनी रे गनी है ,
कर दे मुझे लोहे को कंचन तु पारस की मणी रे मणि है।
छोड़ पुरानी अब तो उठा ले माया से गया हार मैं, 
                                 क्या मुझसे कुछ भूल.......
 सुनकर मुस्काए गिरधारी चरणों को धोए नीर झडी़ है ,
लेकर लोटा हाथ रानियां देख मिलन ये खड़ी की खड़ी है।
तुमसे बढकर भक्त सखा ना मैंने जग में पाया , 
हा मुझसे भूल हुई श्रीदामा जो मिलने तुमसे नहीं आया । 
दशरथ रांकावत "शक्ति"


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