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अर्जुन का घमण्ड



भगवान की लीला भी गजब है पहले तो अर्जुन को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर बनाने के लिए सभी दुसरे योद्धाओ को रास्ते से हटाया एकलव्य का अँगूठा कर्ण के कवच कुण्डल भीष्म के लिए शिखण्डी़ द्रोण के लिए धृष्टधुम्न जैसे विरोधी विकल्प बनाये।
महाभारत में एक ऐसा योद्घा और था जो उस समय धरती का सबसे महान योद्धा था नाम था बर्बरीक !

बर्बरीक महाबली भीमसेन के मायावी पुत्र घटोत्कच का पुत्र था । बर्बरीक ने भगवान शंकर की घोर तपस्या करके तीन अमोघ तीर प्राप्त किये थे जिनका तोड़ उस काल में किसी के भी पास नहीं था।
वैसे ये होना चाहिए था कि भीम का पोत्र है तो पाण्डवो की तरफ से ही युद्ध करेगा मगर उसका एक प्रण था कि निर्बल की सहायता करेगा बस इसी प्रण के कारण श्री कृष्ण ने उसे भी रास्ते से हटाया क्योंकि यदि वो युद्ध में भाग लेता तो युद्ध कभी समाप्त नहीं होता जिस तरफ भी हार दिखती वो उधर चला जाता।
वास्तव में महाभारत के युद्ध में अर्जुन को घमण्ड हो गया कि मैने अकेले पुरी कौरव सैना का संहार किया मै ही सर्वश्रेष्ठ हूँ। भगवान तो अंन्तर्यामी है इस कारण भगवान ने उसका उपाय युद्ध पुर्व कर दिया था कथा कुछ ऐसे है
 श्री कृष्ण ने बर्बरीक की परीक्षा के उद्देश्य से एक बार बर्बरीक से कहा कि मुझे भी अपनी युद्ध कला दिखलाओ सामने के पेड़ के जितने पत्ते है उन्हें छेद कर बताओ ओर चुपके से एक पत्ता पैर के नीचे दबा दिया। बर्बरीक ने अमोघ बाण निकाला और लक्ष्य मंत्र संधान किया तीर पेड़ के प्रत्यैक पत्ती को छेदकर भगवान के चरण को बींध गया रक्त की धार देख बर्बरीक चरणो में गिर गया ।



 आगे क्या हुआ वो इस काव्य रचना के माध्यम से प्रस्तुत है -

   अर्जुन का घमंड

शुरू तो युद्ध से होता कोई है काम नहीं,
गर हो ही जाए शुरू तो होता कोई अंजाम नहीं।
इसलिए करता शुरू में ले नाम योगेश्वर नाथ का,
अपने गुरु का अपने पिता का और अपनी मात का।
कौरवों और पांडवों के बीच था जो युद्ध रचा,
यह सत्य है उस युद्ध का धर्म ही केवल बचा।
पर अर्जुन को इस युद्ध में हो गया था मद बहुत,
गीता ज्ञान काम न आया दिए थे उपदेश बहुत।
इस बात को श्रीकृष्ण ने बहुत पहले जाना था,
इस हेतु एक निर्णायक शक्तिवान बनाना था।
बर्बरीक को चुना प्रभु ने वह है शिव शंभू का साधक,
प्रभु धर्म के रक्षक है और धर्म युद्ध में है वो बाधक।
वरदान अनोखे पाए उसने निर्बल के पक्ष में खड़ा रहेगा,
लौटेंगे लक्ष्य बींधकर फिर से तरकस तीरों से भरा रहेगा।
 महाभारत के युद्ध में धर्म नहीं विजयी हो पाता,
जिस और पराजय कदम धरे विजय खींच वह उधर ही लाता।
शिवभक्त बर्बरीक से प्रभु ने मांगा उसका शीश,
एक वार तलवार से चढ़ा दिया चरणों में शीश।
शीश रखा पर्वत पर उसका जहां से दिखता सारा युद्ध ,
निर्णायक अद्वितीय रचा क्योंकि होगा निर्णय शुद्ध।
भीम पुत्र बर्बरीक ने जब पूछा श्री भगवान से,
था अजेय वो रथी कौन सा इस भीषण संग्राम में।
बर्बरीक ने कर प्रणाम चक्रधारी नाथ को,
पिता पितामह तात को कहा अपनी बात को।
एक प्रतिज्ञा और एक ब्राह्मण वरदानों झुंड भी था,
रक्त की प्यासी एक सती का बलशाली एक पति भी था।
 चारों और बाण बरसाता अद्वितीय एक वीर भी था,
मित्रता हित शस्त्र चलाता दानवीर महावीर भी था।
सात सात से लड़ते एक को देखा कटा हुआ धड़ लड़ता देखा,
पर कोई नि स्वार्थ ना देखा चारों और स्वार्थ ही देखा।
सब थे वीर गजब के लेकिन दो थे केवल वीर अजेय,
इस पर अर्जुन गर्व से बोला कौन वो वीर कौन है वीर।
 बर्बरीक ने अंतिम स्वर में नष्ट कर दिया मद अर्जुन का,
कर प्रणाम शिव शंकर को भेद खोल दिया संग्राम का।
ध्वज पर बैठा एक कपीश और तुम्हारे रथ के धीश,
केवल चक्र चला सब और काट रहा था सबके शीश।
सुनकर अर्जुन दुखी और लज्जित गिरे श्री कृष्ण चरण में,
शीश गर्व का मिला धूल में नारायण की शरण में।          
                                   दशरथ रांकावत "शक्ति"  


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बहुत धन्यवाद इस प्रोत्साहन के लिए

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