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मैं हूँ धरतीपुत्र


स्वाभिमान, खुद्दारी, आत्मसम्मान ये शब्द जितने भारी लिखने और दिखने में है उस से कही ज्यादा भार इनको धारण करना में है।
आज जैसा समय है व्यक्ति अपनी जडो़ से जुड़ा नहीं रह पा रहा है कारण क्या है इस पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है मगर ये मानने में किसी को कोई संकोच नहीं होगा की भारत अगर कही बचा है तो वो केवल गाँवो में।
उसी गांव का कोई किसान अपनी  जीवन यात्रा का
 वर्णन अपने बेटे से आखिरी वक्त कहता है ।
जीवन की कहानी लिखना बड़ा मुश्किल काम है आदमी क्या खोया क्या पाया का चिठ्ठा खोलता है कैसै उम्र के हर पडाव को पार करके यहां तक पहुंचा पैसे कमाने के बहुत रास्ते थे मगर खेती, खेत, मिट्टी, गाँव में ऐसा क्या था जिसने उसे बांधे रखा।  विषय तर्क का हो सकता है मगर सच्चाई फिर भी यही रहेगी।  




 मैं  हूँ धरतीपुत्र

आत्मा मेरी मेरे तन से न निकले कही तडपकर,
और शर्म से सर मेरा झुक जायेगा मेरे मरण पर।
वो शहर क्या दे सकेगा जो यहां पर शान है,
मैं  हूँ धरतीपुत्र सच्चा नाम मेरा किसान है।
 मैं  हूँ धरतीपुत्र सच्चा............
मैं यहां पैदा हुआ बचपन की उजली याद है,
दुध घी और राब मख्खन का अलग ही स्वाद हैं।
गाँव, मिट्टी खेत गैया ही मेरी पहचान है,
मैं  हूँ धरतीपुत्र सच्चा...........
हूं गिरा गिरकर उठा इस ऊँचे  नीचे खेत में,
गेहू सरसों मूँग चावल भी उगे इस रेत में।
मेरे पुरखो की यही बस आखिरी पहचान है।।
 मैं हूँ धरतीपुत्र सच्चा..........
हाँ समय की दौड़ में बेटा भले मैं गया हार,
बेचकर इसको में बनवा लेता कोठी चमकदार,
मेरे बेटे करता रोशन नाम तु पढकर विदेश,
पर नहीं कह पाता सबको इस धरती पे अभिमान है।।
मैं हूँ धरतीपुत्र सच्चा..........
है धरा पर बाप जब तक ये जमीं ना बेचना,
दफ्न कर मुझको यहीं ये मिट्टी मुझपे ओटना।
धान धन देगी सदा रहना यही आशीश है,
स्वर्ग सच्चा मातृभूमि राम का आह्वान है।।
 मैं हूँ धरतीपुत्र सच्चा..........
                          दशरथ रांकावत "शक्ति"




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